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Tuesday, January 18, 2011

अवधारणा और धारणा



अध्ययन पूर्वक अवधारणा, अवधारणा पूर्वक अनुभव, अनुभव-मूलक विधि से धारणा। यह क्रम है। धारणा होने पर अध्ययन पूरा होने का प्रमाण हुआ। यदि धारणा नहीं हुआ है तब तक अध्ययन करना ही होगा।

अध्ययन दो प्रकार का होता है - अनुसंधानात्मक अध्ययन और शोधात्मक अध्ययन। दो ही विधियाँ हैं, तीसरा कोई विधि नहीं है अध्ययन के लिए!

अभी तक पठन को अध्ययन मानते रहे। वैदिक युग में सुनना और सुनाने को विद्वता माना गया था। वेदों को सुनने-सुनाने वालों को वेद-मूर्ती कहते रहे। हमारी नज़र में वे विद्वान नहीं हुए। विज्ञान के अनुसार यंत्र से काम कराना विद्वता है। 'काम करना' नहीं - 'काम कराना'!... बिना किये कराना को विद्वता माना। इन दोनों तरीको से अध्ययन होता नहीं है।

कल्पनाशीलता तदाकार होने के फलस्वरूप बुद्धि में अवधारणा होती है। हर व्यक्ति के पास कल्पनाशीलता पूंजी के रूप में है। कल्पनाशीलता के आधार पर हम अनुमान करते हैं। अनुमान में पहले भास्-आभास होता है। चित्त में होने वाले अनुमान में तब तक परिवर्तन होता रहता है जब तक कल्पनाशीलता तदाकार न हो जाए। इसको परिपुष्ट या परिपक्व अनुमान कहा। सच्चाई क्या है - उसका एक अनुमान मजबूत हो गया। इसका नाम है प्रतीति। प्रतीति की पुष्टि तब है जब बुद्धि उसे स्वीकारे - 'यह सच्चाई है'। न्याय-अन्याय, धर्म-अधर्म, सत्य-असत्य दृष्टियों के तुलन से गुजर कर आयी बात है - यह सच है। इसको बुद्धि स्वीकारता है, अर्थात इसका बोध होता है। बुद्धि के इस प्रकार स्वीकारने से पहले अनुमान में बदलाव होता रहता है। बुद्धि ऐसी पवित्र स्थिति का इंतज़ार करती रहती है। इसके बाद जब बुद्धि में बोध हो जाता है, तो उसका नाम है - 'अवधारणा'। अवधारणा पूरी होने तक अध्ययन है।

अवधारणा अनुभव की पृष्ठ-भूमि है। बोध के आधार पर अनुभव होता है। बोध होने के उपरान्त अनुभव स्वाभाविक होता है - उसके लिए कोई पुरुषार्थ करने की आवश्यकता नहीं है। अनुभव के आधार पर प्रमाण होता है। प्रमाण के आधार पर पुनः बुद्धि में प्रमाण-बोध होता है। प्रमाण-बोध जो बुद्धि में आता है तो 'धारणा' हो गयी। अवधारणा और धारणा के बीच हमारा कोई पुरुषार्थ नहीं है। वह अपने आप से होता है। यह धारणा ही सुख का स्त्रोत है। मानव सुख-धर्मी है। सुख का ही धारणा होता है, और किसी बात का धारणा होता नहीं है। धारणा के बाद प्रमाण है। धारणा है - सुख के लिए यही रास्ता है, यह स्वयं में सुनिश्चित होना। यह बुद्धि में ही होता है। बुद्धि में ही धारणा होता है। धारणा की परिभाषा दिया - जिससे जिसका विलगीकरण न हो, वही उसकी धारणा है। धारणा ही धर्म है।

प्रमाण-बोध जब चित्त में आता है तो उसका नाम है - समाधान, अर्थात कैसे हम सच्चाई को प्रमाणित करेंगे, लोकव्यापीकरण करेंगे। इसका चित्रण होता है। ऐसे चित्रण का फिर तुलन होता है। अध्ययन पूर्वक पता चलता है - न्याय-धर्म-सत्य और प्रिय-हित-लाभ दृष्टियों से तुलन होता है। अनुभव पूर्वक वृत्ति में तुलन होता है - प्रिय-हित-लाभ का न्याय-धर्म-सत्य में विलय हुआ या नहीं हुआ? यदि विलय हुआ तो प्रमाण सहज तुलन होता है - जिसका नाम है, "दृढ़ता"। इस तरह हम विचार विधि से दृढ हो गए। विचार-विधि से दृढ होने पर उसके अनुसार विश्लेषण तैयार हो जाता है। समाधान का जब विचार पूर्वक विश्लेषण होता है, तो वह जीने में प्रमाणित होता है, जिससे हम सफल हो जाते हैं। इतना ही बात है।

अर्थ में मन तदाकार होता है तब अध्ययन हुआ। तदाकार होने के बाद अनुभव में तद्रूप होते हैं। अनुभव होने पर प्रमाण हुआ। प्रमाण का बोध होने पर धारणा हुआ। धारणा होने के बाद परंपरा में प्रमाण होगा। इसमें तर्क-विधि से कोई कमी हो तो बताना। व्यवहार-विधि से कोई कमी हो तो बताना। संतुष्ट होने में कोई कमी हो तो बताना। धारणा का मतलब यही है। व्यवहार विधि से प्रमाणित होना। विचार विधि से प्रमाण को स्वीकारना। और अनुभव-मूलक विधि से प्रमाण को प्रस्तुत करना।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २०१०, अमरकंटक)

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