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Tuesday, July 27, 2021

जीने की आशा

गठनपूर्णता नियति विधि से हुआ.  गठनपूर्ण परमाणु अणुबंधन और भारबंधन से मुक्त तथा आशा बंधन से युक्त होकर शुरुआत करता है.  आशा बंधन पूर्वक या जीने की आशा के आधार पर जीवन अपने कार्य गति पथ को बनाने योग्य हुआ.  कार्य गति पथ अपने में एक आकार होता है.  उस आकार के शरीर रचना का प्रकटन भी नियति विधि से होता है.  


जीने की आशा को व्यक्त करने के लिए एक ही आकार नहीं बनता है.  अनेक प्रकार के आकार बन गए.  हर जीवन अपना कार्य गति पथ बनाया.  गठनपूर्णता के साथ कार्य गति पथ बना ही रहता है.  ऐसा कोई जीवन नहीं है जो अपना कार्य गति पथ नहीं बनाया हो.  यह कार्य गति पथ बदलना बहुत जटिल है.  गुणात्मक परिवर्तन विधि से कार्य गति पथ का बदलना बनता है.  जैसे - मनुष्य के आकार के कार्य गति पथ वाला जीवन बारम्बार मनुष्य शरीर को ही चलाता है.  बाघ के आकार के कार्य गति पथ वाला जीवन बारम्बार बाघ के शरीर को ही चलाता है.  


जीवन मनोगति से काम करता है.  जीव शरीरों को चलाने वाले जीवनों की और मानव शरीरों को चलाने वाले जीवनों की मनोगति एक ही होती है.  शरीर के साथ जीवन जब काम करता है तो वह काम करने की गति अलग अलग हो जाती है.  जीवन की मनोगति एक ही रहता है.  गाय के काम करने. बाघ के काम करने और मानव के काम करने की गति अलग अलग है - शरीर रचना के आधार पर.  जीवन में स्वत्व रूप में मनोगति एक ही है, शरीर के साथ व्यक्त होने में गति अलग अलग है.


जीवों में जीवन वंशानुषन्गीयता पूर्वक काम करता है.  बाघ के शरीर को चलाने वाला जीवन बाघ शरीर को क्या चाहिए - इसको पहचानने योग्य हो जाता है.  शरीर को चलाने के साथ ही यह बन जाता है.  जीवन जिस वंश के जीव के गर्भ में रहता है, उसके कार्यक्रम को तदाकार-तद्रूप होकर स्वीकार लेता है.  तद्रूप-तदाकार होने की व्यवस्था जीवन में बना रहता है.  इसी आधार पर बाघ का बच्चा बाघ का ही काम करता है, हाथी का बच्चा हाथी का ही काम करता है.


प्रश्न:  किसी बाघ शरीर को चलाने वाले जीवन द्वारा आगे मानव शरीर को चलाने की बात कैसे होती है?


उत्तर: बाघ का मानव के साथ संसर्ग होने पर, बाघ मरते समय वह जीवन मनुष्याकार को स्वीकार ले, तब वह गुणात्मक परिवर्तन की आवश्यकता बन जाती है.  मरते समय सुरूप-कुरूप, सुख-दुःख को स्वीकारते हुए जीवन शरीर को छोड़ता है.  


प्रश्न: मानव भी शरीर और जीवन का संयुक्त स्वरूप है, तो वह जीवों से भिन्न कैसे है?


उत्तर: मानव शरीर रचना ऐसा हुआ कि जीवन कल्पनाशीलता कर्म-स्वतंत्रता को व्यक्त कर सका.  जीव शरीरों में कल्पनाशीलता कर्म-स्वतंत्रता प्रकट होने का प्रावधान नहीं है.  मानव शरीर में समृद्धि-पूर्ण मेधस है, जिससे जीवन द्वारा कल्पनाशीलता कर्म-स्वतंत्रता प्रकट हो सके. 


जीवन द्वारा शरीर को जीवंत बनाने से संवेदनाएं प्रकट हुई.  जीवों में संवेदनाएं चार विषयों (आहार, निद्रा, भय, मैथुन) में समीक्षित हो जाती हैं.  मानव ने भी शुरुआत चार विषयों की सीमा में जीते हुए किया.  फिर चार विषयों में प्रवृत्त रहते हुए संवेदनाओं को राजी करने के पक्ष में काम करना शुरू कर दिया.  जैसे - ठंडी-गर्मी से बचने का प्रयास करना.  यह मानव जीवन में कल्पनाशीलता कर्म-स्वतंत्रता प्रकट होने के आधार पर हुआ.  इस तरह मानव ने जीवों से भिन्न जीना शुरू कर दिया.


कल्पनाशीलता कर्म-स्वतंत्रता प्रकट होने के साथ उसके तृप्ति-बिंदु की तलाश जीवन में रहता ही है.  कल्पनाशीलता कर्म-स्वतंत्रता का तृप्ति बिंदु को मानव ने सुविधा-संग्रह में ढूँढा तो वो मिला नहीं.  ज्ञान का शुरुआत कल्पनाशीलता है.  कल्पनाशीलता के आधार पर ही कर्म-स्वतंत्रता है.  अनुभव ज्ञान में कल्पनाशीलता का तृप्ति-बिंदु है.  उस तृप्ति के आधार पर व्यवस्था में जी कर प्रमाणित होना कर्म-स्वतंत्रता का तृप्ति-बिंदु है.  प्रमाणित होने का स्वरूप है - समाधान समृद्धि.  एक व्यक्ति ऐसे जी कर प्रमाणित हो सकता है तो सभी व्यक्ति प्रमाणित हो सकते हैं.


प्रश्न: मानव जीवन में भ्रम का क्या कारण है?


उत्तर: जीवन ज्ञान के अभाव में मानव जीवन संवेदनाओं को ही जीवन मान लेता है.  फिर जो कुछ भी मानव करता है उसी सीमा में करता है.  यही भ्रम है.  अभी अच्छे से अच्छे और खराब से खराब आदमी का हालत उतना ही है.


- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००८, अमरकंटक)

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