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Tuesday, August 3, 2010

ज्ञान और प्रक्रिया

मनुष्य को जो समझ में आता है - वही ज्ञान है। ज्ञान के चार स्तर हैं - जीव-चेतना, मानव-चेतना, देव-चेतना, और दिव्य-चेतना। ज्ञान जीवन-संतुष्टि की वस्तु है। चार विषयों का ज्ञान और पांच संवेदनाओं का ज्ञान शरीर से सम्बंधित है, प्रक्रिया से सम्बंधित है। ज्ञान रूप में हम संतुष्ट होते हैं, प्रक्रिया पूर्वक उसको हम प्रमाणित करते हैं।

मनुष्य ने सर्व-प्रथम चार विषयों के ज्ञान से शुरू किया, फिर पांच संवेदनाओं के ज्ञान को अपनाया। आज तक उसी में जूझ रहा है। चार विषयों और पांच संवेदनाओं का ज्ञान जीव-चेतना के स्तर का है। जीव-चेतना का यह ज्ञान मानव के लिए भ्रमात्मक है। प्रमाणात्मक ज्ञान मानव-चेतना, देव-चेतना, और दिव्य-चेतना में होता है।

ज्ञान का स्त्रोत सत्ता है। ज्ञान सत्ता स्वरूप में है। ज्ञान अमूर्त या अरूपात्मक है। अस्तित्व में अमूर्त वस्तु केवल सत्ता ही है। मानव में ज्ञान अमूर्त स्वरूप में है। इसको हर व्यक्ति अनुभव कर सकता है।

यह तर्क जो मैंने प्रस्तुत किया, वह "अमूर्त ज्ञान" के लिए आप में ध्यानाकर्षण करने के लिए किया, आशा पैदा करने के लिए किया। आप में सुख की आशा है ही।

तर्क ज्ञान नहीं है। प्रक्रिया तर्क-संगत है। ज्ञान को कैसे पाया जाए, क्यों पाया जाए - इसके लिए तर्क हो सकता है। मनुष्य व्यवहार में न्याय की अपेक्षा रखता है। विचार में समाधान की अपेक्षा रखता है। जीने में व्यवस्था की अपेक्षा रखता है। इस सब अपेक्षा को ज्ञान से ही पूरा किया जा सकता है।

मानव जीवन और शरीर का संयुक्त स्वरूप है। ज्ञान जीवन तृप्ति के लिए है। प्रक्रिया शरीर के साथ है। जीवन मूल्य और मानव-लक्ष्य साथ-साथ पूरे होते हैं। समाधान ही ज्ञान और प्रक्रिया को जोड़ता है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जुलाई २०१०, अमरकंटक)

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