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Saturday, July 10, 2010

सर्व-शुभ का राज-मार्ग

प्रश्न: अस्तित्व का डिजाईन इतना दुरूह क्यों है? देखते ही समझ क्यों नहीं आ जाता?

उत्तर: देखने का मतलब है - समझना। नहीं समझा तो देखा भी नहीं है। अस्तित्व मनुष्य के लिए इन्द्रियगोचर और ज्ञान-गोचर है। इन्द्रिय-गोचर भाग भौतिक-रासायनिक संसार है। जीवन क्रियाकलाप ज्ञान-गोचर है। समाधान आँखों से नहीं दिखता, पर समाधान होता है। ज्ञान-गोचर भाग स्पष्ट नहीं होता, क्योंकि मनुष्य-परंपरा में जागृति प्रावधानित नहीं है। मनुष्य-परंपरा भ्रमित है, इसीलिये मनुष्य के लिए ज्ञान-गोचर भाग सुगम नहीं है। मनुष्य-परंपरा जीवन-बोध कराने योग्य नहीं रहा है, सह-अस्तित्व बोध कराने योग्य नहीं रहा है। और इन दोनों का बोध न होने के कारण मानवीयता-पूर्ण आचरण को बोध कराने योग्य नहीं रहा है। अस्तित्व सह-अस्तित्व स्वरूपी है। उसको समझना दुरूह नहीं है।

प्रश्न: मनुष्य जाति ने अपने इतिहास में इतना पसीना तो बहाया है, अस्तित्व को समझने के लिए। यदि अस्तित्व का डिजाईन सरल है, तो लोगों को जल्दी से, और सीधे-सीधे समझ आ जाना चाहिए था?

उत्तर: लोगों ने पसीना बहाया है, यह बात सही है। लेकिन अपनी condition के आधार पर पसीना बहाया है। उसी से वे असफल हुए। condition को छोड़ कर किसी ने पसीना नहीं बहाया। सारी असफलता वहीं से है।

प्रश्न: condition से आपका क्या आशय है?

उत्तर: condition का मतलब है - अपना अपना लक्ष्य। जिसने जिस बात को अपना लक्ष्य मान लिया, उसके लिए पसीना बहाया। "सार्वभौम लक्ष्य" के लिए पसीना नहीं बहाया। मनुष्य के "सार्वभौम लक्ष्य" के बारे में मध्यस्थ-दर्शन को छोड़ कर कहीं क्या आप पढ़े हो? सर्व-मानव का लक्ष्य एक होने के बारे में क्या कोई सोचा भी है? ऐसा "चाहने" की बात आपको मिल जायेगी, पर ऐसी "विचार-धारा" नहीं मिलेगी। जीने में प्रमाणित करने की बात आपको नहीं मिलेगी। उपनिषदों में "शुभ" चाहा गया है, साथ ही में उसी में लिखा है - "ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या"। जब जगत मिथ्या है, तो किसका शुभ?

प्रश्न: क्या आपके अनुसंधान में कोई condition नहीं था?

उत्तर: "सत्य से मिथ्या कैसे पैदा होता है?" - इस जिज्ञासा का उत्तर पाने के लिए मैं तुल गया। उसको आप condition नाम दो, या non-condition नाम दो। इस जिज्ञासा का कोई वेदज्ञ, कोई महात्मा, कोई ऋषि उत्तर नहीं दे पाया। तब मैंने अनुसन्धान किया, जिसमें मैं सफल हो गया। इस अनुसन्धान के सफल होने में किसका "दोष" माना जाए?

सफल होने का प्रभाव ही है कि लोगों को स्वीकार होता है - यह "ठीक बात" है। प्रभावित होने के बाद प्रमाणित होने के प्रयासों में कुछ लोग लगे हैं, कुछ लोग नहीं लगे हैं। जो नहीं लगे हैं, वे आगे चल कर लगेंगे। जो लोग लगे हैं, उनमें से कुछ पहले सफल होंगे, कुछ बाद में सफल होंगे। लगने वालों की संख्या बढ़ता जा रहा है। सफल होने वालों की संख्या भी बढ़ेगी। ऐसा मैं मान कर चल रहा हूँ। क्या इसमें कुछ गलत है?

मानव जाति के पास सार्वभौमता का कोई मार्ग नहीं था, वह बन गया है। मानव जाति चाहेगा तो उसका उपयोग करेगा, नहीं चाहेगा तो नहीं करेगा। हमारा किसी से कोई आग्रह नहीं है - आप यही करो! यह निर्देश अवश्य है - "यह राज-मार्ग है। सबके शुभ के लिए मार्ग यही है।" इतना तक घोषणा करेंगे, बाकी स्वेच्छा पर है।

प्रभाव प्रभावित करने से नहीं, प्रभाव को स्वीकार करने से है। मेरे ही परिवार में इतने पीढ़ियों से हर पीढी में सन्यासी होते रहे, पर उनको "ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या" परेशान नहीं किया - पर मुझे किया। ऐसा क्यों? मैंने स्वीकार किया, इसलिए इसको लेकर मैं प्रभावित हुआ। परेशान नहीं होता, तो अनुसंधान क्यों करता। अनुसंधान करने में मुझे कोई परेशानी नहीं हुआ, किसी भी बात से मैं घबराया नहीं। उसका श्रेय मैं अपने परिवार को देता हूँ। हम ढाई वर्ष तक पत्ते खा कर जिए, पर हमको लगा नहीं कुछ "कमी" है, क्योंकि विश्वास था - यदि जरूरत हुआ तो पुनः कुछ कर लेंगे। पूरा समझते आते तक मुझे परेशानी हुआ नहीं, अभाव हुआ नहीं, कुंठा हुआ नहीं, भय हुआ नहीं, न मैं प्रताड़ित हुआ। इसको परंपरा का देन कहा जाए, मानव का पुण्य कहा जाए, मेरा परिश्रम कहा जाए, मेरा अज्ञान कहा जाए - क्या कहा जाए?

इससे जो राज-मार्ग निकला है, वह सर्व-मानव के लिए उपयोगी है। अब इसमें कोई शंका नहीं है। सर्व-मानव तक इसको पहुंचाने की विधि पर हम तुले हैं। कुछ अभी कर रहे हैं, कुछ आगे करेंगे। आगे की पीढी और अच्छा करेगी।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक)

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