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Monday, December 23, 2019

ग्रहण क्रिया के लिए वस्तु

ग्रहण क्रिया को पात्रता कहा है.  मानव में समझदारी के लिए ग्रहण क्रिया बनी हुई है.  इस पात्रता के अनुरूप वस्तु भी होने की आवश्यकता है.  अभी तक परम्परा में ग्रहण योग्य वस्तु ही नहीं है.  क्या ग्रहण करना है क्या नहीं - इसको तय करने का आधार नहीं है.  परम्परा से बेवकूफी/भद्दगी को हम सुनते रहे, उसमे से प्रलोभनात्मक को वरते रहे, भयात्मक को छोड़ते रहे - यह हमारी मनमानी करने की विधि रही.  अब यहाँ मानव के ग्रहण करने योग्य वस्तु का प्रस्ताव रखे हैं.  ग्रहण करने की वस्तु है - नियम, नियंत्रण, संतुलन, न्याय, धर्म, सत्य की समझ.  यह समझ में आ जाए और प्रमाणित हो जाये.  सत्य को हम सहअस्तित्व स्वरूप में बता रहे हैं.  धर्म को हम अभ्युदय (सर्वतोमुखी समाधान) स्वरूप में बता रहे हैं.  न्याय को सम्बन्धों में होने वाला प्रकाशन बता रहे हैं.  नियम-नियंत्रण-संतुलन को मनुष्येत्तर प्रकृति को बनाये रखने के रूप में बता रहे हैं. 

अध्ययन क्रम में अपनी मनमानी की बात को secondary करते हुए यथार्थ को ग्रहण करने/समझने की बात बलवती होता जाता है.  यथार्थ समझ में आने के बाद हमारा अभिव्यक्ति, सम्प्रेष्णा, प्रकाशन रहेगा ही. 

अभी परंपरा में यथार्थता का स्त्रोत नहीं रहने के कारण एक आयु के बाद मानव में ग्रहण क्रिया बोथरा हो जाता है.  मानवजाति के सामने अब यह यथार्थता का पूरा प्रस्ताव आ गया है.  यथार्थता के इस प्रस्ताव में न कोई भय है न प्रलोभन है.  ग्रहण क्रिया, प्रकाशन क्रिया और वहन क्रिया जीवन में बनी हुई है.  उसमे क्या वस्तु होना है यह निर्णय होना है.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित.  अमरकंटक, अगस्त २००७

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