ANNOUNCEMENTS



Thursday, December 6, 2018

साधन के साथ ही हम प्रमाणित होते हैं.



समझदारी के साथ व्यवस्था में भागीदारी करने का स्वीकृति हो जाती है.

समृद्धि के साथ ही समझदारी का प्रमाण दूर-दूर तक फैलता है.  प्रमाण गति के साथ है - जिसमे शरीर पोषण है, संरक्षण है, और समाज गति है.  समाज व्यवस्था में भागीदारी करने के लिए साधन चाहिए.  साधन के साथ ही हम प्रमाणित होते हैं.  साधन को छोड़ कर हम प्रमाणित नहीं होते. 

जीवन शरीर नामक साधन के साथ ही होता है - तब ही मानव संज्ञा बनता है.  शरीर का पोषण आवश्यक है.  संरक्षण आवश्यक है.  तब ही समाज गति संभव है. 

प्रश्न: साधन की आवश्यकता की मात्रा का कैसे निश्चयन करेंगे?

उत्तर:  एक व्यक्ति सोचता है - ग्राम परिवार व्यवस्था में भागीदारी करेंगे.  दूसरा व्यक्ति सोचता है - विश्व परिवार व्यवस्था में भागीदारी करेंगे.  दोनों संभव है.  जिस स्तर तक जिसका भागीदारी करने का अभिलाषा होता है उसके अनुसार साधन संपन्न होना उसका आवश्यकता होता है. 

आवश्यकता की मात्रा को सबके लिए समान किया नहीं जा सकता.   प्रयोजन के अर्थ में हर परिवार की आवश्यकताएं "सीमित" हैं, लेकिन हर परिवार की आवश्यकताएं "समान" नहीं हैं.  मार्क्स यहीं फेल हुआ.  उसने नारा दिया था -"मनुष्य अपनी आवश्यकता के अनुसार भोग करे, क्षमता के अनुसार श्रम करे".  वह सफल नहीं हुआ - क्योंकि आवश्यकता का ध्रुवीकरण नहीं हुआ.  (समझदारी के बिना) किसको क्या नहीं चाहिए?  आवश्यकता का ध्रुवीकरण नहीं हुआ क्योंकि अपनी प्रयोजनीयता पता नहीं है, सदुपयोगीयता पता नहीं है, उपयोगिता पता नहीं है.

मध्यस्थ दर्शन से निकला - मनुष्य अपनी उपयोगिता, सदुपयोगिता, प्रयोजनीयता को प्रमाणित करने के क्रम में समाज गति को अपनाता है.  समाजगति को अपनाने में जिसको जितना विशालता में भागीदारी करना है, उसको उतना साधन की आवश्यकता है.  उसको श्रम पूर्वक उत्पादन कर लो! 

जितना जिसका उपकार करने की अभिलाषा है, उतना साधन की मात्रा से संपन्न होने की उसकी  आवश्यकता है.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

No comments: