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Saturday, May 9, 2009

दरिद्रता से मुक्ति

समझदारी से समाधान प्रमाणित करने के बाद अपने परिवार में श्रम से समृद्धि प्रमाणित करना भावी हो जाता है। मानवीय व्यवस्था का स्वरूप निकलता है - "परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था" , जिसमें विश्व-परिवार तक के दस सोपान हैं। अपने परिवार में समृद्धि को प्रमाणित किए बिना कोई व्यक्ति विश्व-परिवार में भागीदारी नहीं कर सकेगा। चोरी, खींचा-तानी ही करेगा! समृद्धि के आधार पर ही व्यक्ति विश्व-परिवार तक अपनी भागीदारी कर सकता है। इस ढंग से मानवीय-व्यवस्था का पूरा ढांचा-खांचा दरिद्रता से मुक्त होगा।

समाधान-समृद्धि प्रमाणित किए बिना एक भी आदमी व्यवस्था में नहीं जी सकता। समझदारी के साथ व्यवस्था की स्वीकृति हो जाती है। अस्तित्व में प्रत्येक एक स्वयं में व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी करता है - यह स्पष्ट हो जाता है। मानव में इस व्यवस्था का स्वरूप है - परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था।

शरीर-पोषण, शरीर-संरक्षण, और समाज-गति के लिए समृद्धि चाहिए। जितनी दूर तक समाज-गति में भागीदारी करना है, उतनी समृद्धि चाहिए। समृद्धि के साथ ही समाधान का प्रमाण दूर-दूर तक पहुँचता है। साधनों के साथ ही हम समझदारी को प्रमाणित करते हैं। साधनों को छोड़ कर हम समझदारी को प्रमाणित नहीं करते। शरीर भी जीवन के लिए एक साधन है। शरीर और जीवन के संयुक्त रूप में ही मानव है। मानव ही समझदारी को प्रमाणित करता है। शरीर-पोषण मनुष्य की एक आवश्यकता है। शरीर-संरक्षण मनुष्य की एक आवश्यकता है। ये दोनों होने पर समाज-गति की बात है। एक व्यक्ति ग्राम-परिवार व्यवस्था में भागीदारी करने का अभिलाषी है। दूसरा व्यक्ति विश्व-परिवार व्यवस्था में भागीदारी करने का अभिलाषी है। जितनी सीमा तक जो व्यवस्था में भागीदारी करने की अभिलाषा रखता है, उतना उसका साधन संपन्न होना - उसकी आवश्यकता है। इस तरह हर व्यक्ति अपनी आवश्यकता का निश्चयन कर सकता है।

आवश्यकताओं का निश्चयन आवश्यक है। "सभी की आवश्यकताएं समान होनी चाहिए" - यह जबरदस्ती है। जैसे एक व्यक्ति का पेट २ रोटी से भरता है, दूसरे का ४ रोटी से ही भरता है। एक को ३६ इंच की बनियान आती है, दूसरे को ४० इंच की बनियान ही आती है। इसको कैसे समान बनाया जाए? जितने में जो तृप्त हो, वही उसकी आवश्यकता है। आवश्यकताओं में "मात्रा" के अर्थ में समानता नहीं लाई जा सकती। मनुष्य की आवश्यकताएं "प्रयोजन" के साथ सीमित होती हैं। कार्ल मार्क्स ने नारा दिया था - "मनुष्य अपनी आवश्यकता के अनुसार उपभोग करे, सामर्थ्य के अनुसार काम करे।" यह इसलिए असफल हुआ - क्योंकि आवश्यकता का ध्रुवीकरण करने का कोई आधार नहीं दिया। समझदारी पूर्वक ही आवश्यकता का ध्रुवीकरण सम्भव है। आवश्यकता का ध्रुवीकरण "प्रयोजन" की समझ में ही होता है।

इसके अलावा - यह भी सोचा गया था, धर्म के काम करने वालों की ज़रूरतों के लिए समाज उपलब्ध कराएगा। वह सोच भी असफल हो गयी। समाज जो ऐसे लोगों को संरक्षण दिया, लेकिन उनसे समाज-कल्याण का कोई सूत्र निकला नहीं। ऐसे धर्म-कर्म करने वालों से व्यक्तिवाद और समुदायवाद के अलावा और कुछ निकला नहीं। अब समाज इनको कब तक अघोरे?

भौतिकवादी और आदर्शवादी दोनों विचारधाराओं पर चलने से मनुष्य श्रम से कट जाता है। जो जितना पढ़ा, वह उतना ही श्रम से कट गया। श्रम के बिना समृद्धि होती नहीं है।

कर्म-दासत्व से मुक्ति स्वावलंबन से ही है। नौकरी करना भी एक कर्म-दासत्व है। स्वावलंबन समाधान से आता है। उससे पहले स्वावलंबन आता नहीं है। अभी कुछ भी सेंधमारी, जानमारी, लूटमारी करके "स्वावलंबन" की बात की जाती है। स्वावलंबन वास्तविकता में है - सामान्याकान्क्षा (आहार, आवास, अलंकार) या महत्त्वाकांक्षा (दूर-गमन, दूर-दर्शन, दूर-श्रवण) संबन्धी कोई भी वस्तु का अपने परिवार के पोषण, संरक्षण, और समाज-गति की आवश्यकताओं के लिए श्रम पूर्वक उत्पादन कर लेना। समाधान के बिना स्वावलंबन का प्रवृत्ति ही नहीं आता।

दासता किसी को स्वीकृत नहीं है। मजबूरी में दासता करता है मनुष्य। यह अभ्यास में आने पर ऐसे होता है - जो करने को कहा है, वैसा नहीं करना। कम काम में ज्यादा पैसा माँगना। दासता के साथ व्यवस्था नहीं हो सकती।

प्रश्न: अभी मैं अध्ययन-क्रम में हूँ, साथ में कहीं नौकरी भी कर रहा हूँ। वह दासता मुझे स्वीकृत नहीं है। अब क्या किया जाए?

उत्तर: आपके सामने कुछ जिम्मेवारियां हैं। मानव-परम्परा अभी जीव-चेतना में ही है। ऐसे में - दाम्पत्य, अभिभावकों, और बच्चों की अपेक्षा रहता है - कमाऊ पूत बाकी लोगों का भरण-पोषण करेगा। इस मान्यता को हमें ध्यान में रख कर चलना है। इनको घायल करके नहीं चलना है। इससे पहले आदर्शवादियों ने कहा - परिवार को छोड़ दो, बच्चों को छोड़ दो, सन्यासी हो जाओ... उससे कोई प्रयोजन निकला नहीं। परिवार-जनों की अपेक्षाएं पुरुषार्थियों से ही होती हैं। जो पुरुषार्थी नहीं हैं, उनसे परिवारजन अपेक्षा भी नहीं करते। अब हमें पुरुषार्थी के साथ परमार्थी भी होना है। उसके लिए समझदारी से संपन्न होना आवश्यक है। समझदारी से संपन्न होते तक जो आप नौकरी के लिए दासता करते हो -वह कोई अड़चन नहीं है।

समझदारी से संपन्न होने के बाद स्वयं में यह विश्वास होता है कि मैं समृद्धि पूर्वक अपने सभी दायित्वों को पूरा कर सकता हूँ। जीव-चेतना में बने हुए अपने इन दायित्वों को पूरा करने के बाद ही हम समग्र व्यवस्था में भागीदारी करने योग्य हो पाते हैं। इनको काट कर, घायल कर के आगे बढ़ने का कोई रास्ता नहीं है।


- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

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