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Sunday, August 17, 2008

"जीने" के आंशिक भाग में "करना" है.

आज की स्थिति में आदमी के पास "करने" का load ज्यादा है। "सोचने" का load उससे कम है। "समझने" का load शून्य है। यह load जीवन में "इच्छा" के स्वरुप में है। यंत्रों को संचालित करने को "करना" माना है। उसके लिए सोच जो है - वह लाभ-हानि के आधार पर तुलन है। पैसे के आधार पर लाभ-हानि को पहचाना। आज की स्थिति में "करने" को ही "जीना" मान लिया गया है। अभी पूरा शिक्षा-तंत्र और पूरा व्यवस्था तंत्र "करने" को ही "जीना" मान करके चल रहा है - जिसके मूल में लाभ-हानि को लेकर तुलन-विश्लेषण है।

मध्यस्थ-दर्शन का प्रस्ताव आज की जो स्थिति है - उससे बिल्कुल उल्टा है। आज की स्थिति में "करना" है, और "करने" के लिए ही "सोचना" है। यह तरीका "समझने" तक पहुँचता ही नहीं है। मध्यस्थ-दर्शन में "समझ के करने" का प्रस्ताव है। "समझ" पूर्वक ही परिवार में अपनी आवश्यकता का निर्धारण होता है - उसके लिए क्या और कैसे "करना" है वह निर्धारण होता है। निर्धारण हेतु "सोच विचार" के लिए "समझ" पूरी रहती है।

"समझने" पर ही "जीने" की विधि आती है। समझदारी से यह निकलता है - "जीने" के आंशिक भाग में "करना" है।

"समझने" की ज़रूरत को पूरा करने के लिए मध्यस्थ-दर्शन का प्रस्ताव है। मध्यस्थ-दर्शन में जीने की विधि के लिए प्रस्ताव है - समाधान सम्पन्नता पूर्वक समृद्धि के साथ गति।

समाधान "समझे" बिना हो नहीं सकता।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००७, अमरकंटक )

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