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Tuesday, August 12, 2008

भ्रांत-अभ्रांत

प्रश्न: अनुभव सम्पन्नता के बाद मनुष्य मानव-पद में आता है। मानव-पद को आपने "भ्रांत-अभ्रांत" भी कहा है। "भ्रांत-अभ्रांत" का क्या अर्थ है?

उत्तर: "भ्रांत" मनुष्य प्रिय-हित-लाभ दृष्टियों से विचार करता है, कार्य करता है। "निर्भ्रांत" मनुष्य न्याय-धर्म-सत्य दृष्टियों से विचार करता है, कार्य करता है। निर्भ्रांत होने के बाद कोई भ्रांत वाले काम करता नहीं है। निर्भ्रांत होने पर "भ्रांत " क्या है - यह पता चलता ही है। यह वैसे ही है, जब हमको सही क्या है यह पता चल जाता है, तो ग़लत क्या है - यह भी पता चल जाता है। गलती के लिए कोई अलग से अध्ययन करना नहीं पड़ता।

भ्रांत-अभ्रांत से आशय है - जो निर्भ्रांत हो कर भ्रांत और निर्भ्रांत दोनों का दृष्टा हो। यह इसलिए आवश्यक है,क्योंकि गलती को सुधारने के लिए गलती को देख पाना आवश्यक है। यह तभी तक है जब तक पूरी मानव-परम्परा जागृति में परिवर्तित नहीं हो जाती। "भ्रांत-अभ्रांत" अनुभव संपन्न व्यक्ति ही है, जो मानव-पद में है। भ्रांत-अभ्रांत का मतलब यह नहीं है - अनुभव संपन्न व्यक्ति में भ्रान्ति भी रहेगा और निर्भ्रान्ति भी रहेगा।

सही को समझा है उसको गलती करने वाला ग़लत सिद्ध नहीं कर पाता। धीरे-धीरे गलती करने वाला सही समझने की जगह में आ जाता है। सही-पन किसी एक व्यक्ति से शुरू होता है।

प्रश्न: इससे पहले "सही" हुआ कि नहीं?

उत्तर: "सही" के बारे में मान्यता रही है। सही का प्रमाण हुआ नहीं।

"सही" कुछ होता है - ऐसी मान्यता रही है। पर सहीपन की परम्परा नहीं बन पायी। सही-पन की परम्परा से आशय है - समझ जो आचरण में आए, संविधान में आए, शिक्षा में आए, और व्यवस्था में आए। मध्यस्थ-दर्शन सही-पन की प्रमाण सहित परम्परा के लिए प्रस्ताव है। उसी के लिए हम प्रयास-रत हैं।


- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

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