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Thursday, July 13, 2023

जिज्ञासा और स्पष्टीकरण - भाग 2

 प्रश्न:  मानव व्यव्हार दर्शन में आपने लिखा है - "बुद्धि में प्राप्त अवधारणायें क्रम से विचार और क्रिया में व्यक्त होती हैं, और क्रिया से प्राप्त विचार पुनः अवधारणा में स्थित होते हैं.  अवधारणा में तब तक परिवर्तन होता रहेगा, जब तक वह धारणा के अनुरूप न हो जाये।"  इसको कृपया स्पष्ट कर दीजिये।

उत्तर:  यहाँ "बुद्धि में प्राप्त धारणायें" होना चाहिए।  इसको ऐसे पढ़िए - बुद्धि में प्राप्त धारणायें क्रम से विचार और क्रिया में व्यक्त होती हैं, और क्रिया से प्राप्त विचार पुनः अवधारणा में स्थित होते हैं.  अवधारणा में तब तक परिवर्तन होता रहेगा, जब तक वह धारणा के अनुरूप न हो जाये।

अनुभव मूलक विधि से "धारणा" होता है.  अनुभवगामी पद्दति से साक्षात्कार पूर्वक "अवधारणा" होता है.  अवधारणा पूर्वक अनुभव होता है, फिर अनुभव मूलक विधि से धारणा होता है.  साक्षात्कार पूर्वक बुद्धि में होने वाली स्वीकृतियों का नाम है अवधारणा।  अवधारणा पूरी होने पर तुरंत अनुभव होता है, उसका बोध बुद्धि में जो होता है, उसका नाम है धारणा।  धारणा ही धर्म है.  अनुभव मूलक बोध ही धारणा है.  वही धर्म है, वही समाधान है.  

इस तरह बुद्धि में अनुभव मूलक विधि से प्राप्त धारणा, धारणा के आधार पर सभी विचार और कार्य व्यव्हार, और उनके फल-परिणाम, पुनः फल-परिणाम का विचार, विचार का साक्षात्कार होकर अवधारणा, पुनः अनुभव, और पुनः उसका प्रमाण.  इस प्रकार यह जागृत जीवन चक्र चलता है और अनुभव पुष्ट होता रहता है.  अनुभव का प्रमाणित होना ही अनुभव का पुष्ट होना है.  इस तरह बुद्धि में प्रमाणित होने का जो संकल्प हुआ था, वह पूरा होता गया.  यह जब पूरा तृप्त हो जाता है तब दिव्य मानवीयता का संक्रमण है.  यह तीन चरण में पूरा होता है.  मानव चेतना पर्यन्त एषणात्रय सहित उपकार, उसके बाद देव चेतना में लोकेषणा सहित उपकार, फिर दिव्य चेतना में एषणाओं से मुक्त हो कर उपकार.  

अनुभव मूलक विधि से जो धारणा होती है, जब तक पूरा कार्य-व्यव्हार उसके अनुरूप नहीं हो जाता, तब तक अवधारणा में परिवर्तन होता रहता है.  जब तक परिवर्तन होता रहता है, तब तक मानव चेतना है, जहाँ एषणाओं सहित उपकार है.  अवधारणा में परिवर्तन से मुक्ति की शुरुआत देवचेतना से हो गयी, जहाँ लोकेषणा सहित उपकार है.  दिव्यचेतना में यह पूरा हो गया, जहाँ लोकेषणा भी समाप्त हो गयी, केवल उपकार शेष रहा.  

उपकार है - सत्य बोध कराना।  और कुछ भी नहीं है.  

अवधारणा में परिवर्तन = धारणा के अनुरूप अपने सारे विचार, कार्य, व्यवहार का शोध होते रहना.  यही 'स्वनिरीक्षण' है.  दृष्टा पद में होना ही स्वनिरीक्षण का तात्पर्य है.  दृष्टा पद  में अनुभव स्थिर है.  फलतः अनुभव की रौशनी में हर क्षण, हर कार्य व्यव्हार का शोध होने लगता है.  

अनुभव की रौशनी में अध्ययन करना, अनुभव होने के पश्चात हर कार्य व्यव्हार का शोध करना।  इस तरह मानव का 'सही' होना बनता है.  

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००७, अमरकंटक)

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