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Wednesday, July 31, 2019

अनुभव दर्शन है - अनुभव स्वरूप में जीना.


अनुभव दर्शन का मतलब है - सहअस्तित्व अनुभव में आना.  सहअस्तित्व समझ में आना समझदारी की सम्पूर्णता है.  सहअस्तित्व समझ में आने से विकासक्रम अनुभव में आना, विकास अनुभव में आना, जाग्रति-क्रम अनुभव में आना, जाग्रति अनुभव में आना.  यही अनुभव में आने का वस्तु है.  इसी के साथ नियम, नियंत्रण, संतुलन, न्याय, धर्म और सत्य अनुभव में आता है.  यह स्थिति-सत्य, वस्तुस्थिति सत्य और वस्तुगत सत्य के रूप में पूरा व्याख्या हो जाता है.

इस तरह सहअस्तित्व अनुभव में आने पर "समझदारी" को समझाने का परम्परा बनता है.  परम्परा में अभी तक एक तरफ "यांत्रिकता" को समझाने की बात हुई, दूसरी तरफ "रहस्य" को समझाने की बात हुई.  अभी हम सहअस्तित्व को समझाने के लिए तैयार हुए हैं.  सहअस्तित्व में विकासक्रम, विकास, जाग्रतिक्रम, जाग्रति को समझाने के योग्य हम हुए हैं.  यह अधिकार सम्पन्नता हमारे पास है.  इसके आधार पर मानव को समझदार बनाने की कोशिश कर रहे हैं.  इसमें कुछ दूर तक हम चले हैं, कुछ दूर चलना शेष है.  इस तरह हमारा गति बना है.  इसको पूरा समझा ले जाने के बाद मानव अनुभवमूलक विधि से ही जियेगा.  दूसरा कोई रास्ता नहीं है.  अनुभवगामी पद्दति से यदि हम अध्ययन कराते हैं तो अनुभवमूलक विधि से ही प्रमाणित होना बनता है.

अनुभव दर्शन है - अनुभव स्वरूप में जीना.  जीने का नाम है दर्शन.  बातचीत दर्शन नहीं है.  जीना दर्शन है.  दृश्य के रूप में मानव का "होना" और "जीना" दर्शन का आधार है.  मानव के "होने" के स्वरूप को हम पहचानते ही हैं.  मानव के अनुभव स्वरूप में "जीने" का स्वरूप जाग्रति कहलाया.

अनुभव स्वरूप में जीने के पहले की स्थिति में मनुष्य "समझा हुआ" या "दृष्टा पद" में हो सकता है.  इसको बता नहीं पाता है तो अलग बात है.  इस तरह संभव है विगत में भी लोग हुए हों जो दृष्टा पद में हुए हों, प्रमाण स्वरूप में प्रस्तुत न हो पाए हों.  पहले कोई ज्ञानसंपन्न नहीं हुए - इसका दावा हम नहीं कर सकेंगे.  अभी तक "ज्ञान का प्रमाण" तो नहीं हुआ.  ज्ञान का प्रमाण अभी मध्यस्थ दर्शन ही प्रस्तुत किया.  ज्ञान का प्रमाण मतलब - व्यवस्था, अखंडता, सार्वभौमता, अक्षुण्णता वैभव सम्पन्नता.

प्रश्न: "समाधानात्मक भौतिकवाद" से क्या आशय है?

उत्तर: भौतिक रासायनिक वस्तुएं समाधान के रूप में हैं, समस्या के रूप में नहीं हैं.  हर वस्तु अपने त्व सहित व्यवस्था है और समग्र व्यवस्था में भागीदार है.  इसका अर्थ है - नियम, नियंत्रण, संतुलन पूर्वक रहता है. इस तरह भौतिक वस्तुओं को हम व्यवस्था स्वरूप में होना देखते हैं तो हम स्वयं व्यवस्था में होने का प्रेरणा पाते हैं.  उसमे ज्यादा से ज्यादा यौगिक विधि को देख कर प्रेरणा मिलती है.  एक दूसरे से मिलकर गुणात्मक परिवर्तन को कैसे प्रमाणित करें - उसके बारे में हम सोच सकते हैं.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (२००५, रायपुर)

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