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Friday, November 30, 2018

प्रकृति में परस्पर पहचान का स्वरूप



भौतिक रासायनिक वस्तुओं की परस्परता में जो दूरियाँ रहती है, वह स्वयं व्यापक वस्तु (सत्ता) ही है.  जहाँ भौतिक रासायनिक वस्तुएं हैं वहाँ भी व्यापक वस्तु पारगामी विधि से यथावत है. 

प्रश्न: प्रकृति की वस्तुओं की परस्परता में परस्पर पहचान में व्यापक वस्तु का क्या रोल है?

उत्तर: व्यापक वस्तु की पारदर्शीयता - जिससे वस्तुएं/इकाइयां एक दूसरे को पहचान सकती हैं.  पहचानने के लिए जो ताकत है वह वस्तुओं के बीच में रखा है.  व्यापक वस्तु ही पहचानने की अच्छी निश्चित दूरी है.  दूरी बीच में न हो तो पहचान होता ही नहीं है.  जैसे - मैंने इस वस्तु को छुआ, यह स्पर्श ज्ञान मुझे मेरे हाथ और इस वस्तु के बीच दूरी के आधार पर हो रहा है.  स्पर्श में वस्तुओं के बीच दूरी रहता ही है.  यदि हाथ और वस्तु के बीच में दूरी नहीं होती तो इनको अलग किया ही नहीं जा सकता था.  परस्परता में दूरी नहीं है तो स्पर्श ज्ञान भी नहीं है. 

प्रश्न: प्रकृति की वस्तुओं के परस्पर पहचान का क्या स्वरूप है?

उत्तर: वस्तुएं एक दूसरे को शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध विधि से पहचानती हैं.  इन पाँच प्रकार से पहचानने की विधियाँ हैं. 

इनमे सर्वप्रथम स्पर्श विधि से पहचान का प्रकटन है.  एक परमाणु अंश दूसरे परमाणु अंश को स्पर्श विधि से पहचानता है.  स्पर्श स्वीकृति के आधार पर परमाणु अंश परमाणु की व्यवस्था में भागीदारी करने में तत्पर हो गए.

स्पर्श के बाद गंध के आधार पर पहचान का प्रकटन हुआ.  गंध के आधार पर सभी प्राणकोशाएं काम करते हैं.  एक ही भूमि से गन्ने का जड़ अपने पोषण की वस्तु ले लेता है, धतूरे का जड़ अपने पोषण की वस्तु ले लेता है.  यह गंध के आधार पर होता है. 

शब्द या ध्वनि  के आधार पर पहचान का भ्रूण स्वरूप जीवों में हुआ, जिसका मानव में पूरा प्रकटन हो गया.

रूप का "होना" जीवों में पहचान में आता है.  मानव में रूप का "होना" और "रहना" (आचरण) दोनों पहचान में आता है.  इस तरह रूप के आधार पर पहचानने का भ्रूण स्वरूप जीवों में हुआ, जिसका प्रकटन मानव में हुआ.

रस के आधार पर अपने आहार की पहचान जीव संसार में हुई.  जिसमे दो प्रजाति हुई - शाकाहारी और मांसाहारी.  शाकाहारी जीव अपने आहार को पूरा पहचानते हैं, मांसाहारी अपने आहार को पूरा नहीं पहचानते.  मांसाहारी जीव भूख लगने के समय कुछ भी खा लेते है, इसीलिये इनको क्रूर कहा.  मांसाहारी जीवों में ऐसा नहीं होता कि यही आहार करेंगे, दूसरा आहार नहीं करेंगे. 

इस तरह प्रकृति में शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध पूर्वक पहचान का क्रमशः प्रकटन हुआ.  इतने से मानव का चार विषयों और पांच संवेदनाओं की सीमा में रूचि मूलक जीना बन गया, जिसको "जीव चेतना" कहा.  ऐसे जीने से समस्याएं हुई जिससे मानव चेतना की आवश्यकता बनी.  मानव चेतना के लिए यह प्रस्ताव है.  मानव चेतना में संज्ञानीयता पूर्वक हर वस्तु को उसके प्रयोजन के अर्थ में पहचानते हैं, जिससे मूल्य मूलक और लक्ष्य मूलक जीना बनता है.

- श्रद्धेय ए नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)



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