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Tuesday, September 4, 2018

सत्संग

सत्संग का प्रमाण होता ही है.  सत्य के प्रति जो जिज्ञासा तृप्त हो गया या समझ में आ गया तो सत्संग हुआ.  समझ में नहीं आया तो सत्संग नहीं हुआ, प्रयत्न हुआ.

सत्य के बारे में बातचीत करना सत्संग नहीं है.  सत्य को समझने की जिज्ञासा रखने वाला हो और सत्य को समझाने वाला हो - फिर समझने वाले को समझाया हुआ यदि समझ में आ जाता है तो सत्संग हुआ.  यदि नहीं समझ आया तो सत्संग शेष है, प्रयत्न है.

(१) शब्द के आधार पर सत्संग
(२) शब्द के अर्थ के आधार पर सत्संग
(३) अनुभव के आधार पर सत्संग

अनुभव के आधार पर सत्संग पूरा होता है.  शब्द के आधार पर सत्संग करने की बात आदिकाल से है.  शब्द के अर्थ पर हम गए नहीं.  पहली सीढ़ी हम चढ़ चुके हैं, बाकी दो सीढियाँ चढ़ना बचा हुआ है.

प्रश्न: सत्य को समझे होने का प्रमाण क्या होगा?

उत्तर: समाधान.  सत्य समझ में आ गया तो सर्वतोमुखी समाधान होता ही है.  इसको "अभ्युदय" नाम दिया.  अभ्युदय शब्द वैदिक परंपरा से है.  शब्द परंपरा से हैं, परिभाषा मैंने दी है.  जिसकी इच्छा है वह अध्ययन करेगा.  जिसकी इच्छा नहीं है वह अध्ययन नहीं करेगा.  अध्ययन करने की इच्छा और अध्ययन कराने की ताकत दोनों की आवश्यकता है.  इन दोनों के योगफल में ही अध्ययन है.

प्रश्न:  मानव में समझने की इच्छा का कारण क्या है?

उत्तर: मानव सुख की निरंतरता चाहता है.  शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध इन्द्रियों में सुख भासता है.  इसकी निरंतरता चाहिए - लेकिन संवेदनाओं में सुख की निरंतरता नहीं है.  सुख की निरंतरता की चाहत और उसका प्रमाण केवल मानव में ही है.  सच्चाई में सुख की निरंतरता है, इस परिकल्पना के आधार पर सत्य को समझने की जिज्ञासा है.

प्रश्न: मानव अपनी जिज्ञासा को कैसे पहचान सकता है?

उत्तर: अनुभव मूलक विधि से जीता हुआ व्यक्ति सामने व्यक्ति की जिज्ञासा को समझ सकता है.  सामने व्यक्ति को जब समझ में आता है तब उसको पता चलता है उसकी जिज्ञासा क्या थी और उस जिज्ञासा का उत्तर क्या था.  यही एक छोटी से दीवार है जिसको नाकना है.  जिज्ञासा ही पात्रता है, उसी के आधार पर ग्रहण होता है.  अभी अभिभावक बच्चों की जिज्ञासा को पहचान नहीं पाते हैं, उसको समझ से भर नहीं पाते हैं - इसीलिये बच्चे जैसे ही बड़े होते हैं माँ-बाप से दूर हो जाते हैं. 

हर बच्चा जन्म से ही न्याय का याचक, सही कार्य-व्यवहार करने का इच्छुक और सत्य वक्ता होता है.  बचपन में यह जो जिज्ञासा रहता है वह बड़े होते होते कम हो जाता है.  परंपरा से काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य के प्रभाव से यह कम हो जाता है.

प्रश्न: क्या सभी बच्चों में जिज्ञासा समान रहती है या हरेक में उनके प्रारब्ध के अनुसार जिज्ञासा होती है?

उत्तर: पहले सत्य को समझने के लिए जो परिश्रम किया वो तो रहेगा ही.  फिर सत्य को समझाने के लिए पूरी बात यहाँ है.

प्रश्न: अनुभव होते तक विद्यार्थी जो कुछ भी "करता है", क्या वह गुरु के प्रभाव में करता है या अपनी स्वीकृति से करता है?

उत्तर: अपनी स्वीकृति से.  गुरु का प्रभाव समझाने तक ही है.  समझ के अनुसार आदमी अपना कार्यक्रम बनाता है.  इससे न ये कम होता है, न ज्यादा होता है.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०११, अमरकंटक)

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