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Tuesday, December 13, 2016

जीवनी क्रम



जीव संसार जीवनी क्रम में है.  इसका प्रमाण है - गाय का बछड़ा गाय जैसा ही आचरण करता है.  वैसा ही वह खाता है, पीता है, दौड़ता है - जैसा पिछली पीढी की गाय का आचरण था.  यही बात बाघ में भी है.  धरती पर बाघ के प्रकटन के समय उसका जो आचरण था, वही आज भी है.  यही बात सभी जीवों के साथ है.  इस प्रकार अनेक प्रकार के जीवों के आचरण स्थापित हुए.  सभी जीवों के आचरण की परंपरा आज भी यथावत है.  जब तक मानव का हस्तक्षेप न हो, इनके आचरण में कोई व्यतिरेक नहीं होता।  मानव के हस्तक्षेप से उनके आचरण में विकृति ही होती है, सुकृति होती नहीं है.  जीवों में संकरीकरण से उनका वंश ही समाप्त हो जाता है.  संकरीकरण एक प्रजाति के जीवों का दूसरी प्रजाति के जीवों के साथ व्यभिचार कराना है - इस बात को ध्यान में लाने की आवश्यकता है.

"जीव संसार जीवनी क्रम में है" - इस बात को मानव ही समझता है, जीव-जानवर इस बात को नहीं समझता।  मानव इसलिए समझता है क्योंकि मानव हर वस्तु  को समझके उसके साथ व्यवहार करना चाहता है.  बिना समझे कोई व्यवहार करना नहीं चाहता है, आज की स्थिति में! 

प्रश्न:  कौनसा जीवन किस जीव प्रजाति के शरीर को चलाने योग्य है, इसके चुनाव की क्या प्रक्रिया होती है?

उत्तर:  हर जीवन का गतिपथ एक पुन्जाकार स्वरूप में होता है.  जीवन का पुन्जाकार अपने में एक 'स्वरूप' है, उस रूप के जीव-शरीर को वह 'अपना' मान लेता है.  पुन्जाकार जीवन की आशा-गति का स्वरूप है.  जीवन शरीर के साथ होने पर उस शरीर को जीवन मान लेता है.  शरीर को चलाते हुए भी जीवन अपने आपको शरीर होना मानता है, जीवन होना मानता नहीं है.  भ्रमित मानव में भी जीवन शरीर को जीवन मानता है, जीवन को जीवन मानता नहीं है.  भ्रम का मतलब इतना ही है. 

प्रश्न: मृत्यु के समय जब शरीर और जीवन का वियोग होता है तब क्या प्रक्रिया होती है?

उत्तर: जीवों में और मानव में मृत्यु की प्रक्रिया में भेद है. 

जीवों में मृत्यु  घटना:  रोगी/घायल शरीर को जीवन चला नहीं पाता है तो उसे छोड़ देता है. 

मानव में मृत्यु घटना:  शरीर अब चलने योग्य नहीं रहा, इसलिए उसको जीवन छोड़ता है.  मानव शरीर को जीवन जब छोड़ता है तो अपनी शरीर यात्रा का मूल्याँकन करता है.

प्रश्न:   चार विषय और पाँच संवेदनाओं का क्रियाकलाप जीवों में भी दिखता है और मानवों में भी.  फिर जीवों और मानवों में मौलिक भेद क्या है?  (reference)

उत्तर: जीवों में संवेदनाओं के प्रति जागृति नहीं होती।  जीव आहार-निद्रा-भय-मैथुन विषयों को पहचानते हैं और उनको करते हैं.  जीवों में संवेदनाएं चार विषयों के अर्थ में काम करती रहती हैं.

जीवों में "समृद्ध मेधस" होता है, लेकिन मानव में "समृद्धि-पूर्ण मेधस" होता है.  समृद्धि-पूर्ण मेधस के कारण मानव में जीवन द्वारा कल्पनाशीलता प्रकाशित होती है.  जो जीवों से मौलिकतः भिन्न है, जिसके आधार पर मानव ज्ञानावस्था में गण्य है. 

मानव पांच संवेदनाओं को राजी रखने के अर्थ में (या "रुचि" के लिए) चार विषयों के क्रियाकलाप को करता है.  संवेदनाओं के आधार पर मानव ने सर्वप्रथम ज्ञान को स्वीकारना शुरू किया।  मानव में पायी जाने वाली कल्पनाशीलता का यह पहला प्रभाव है.  मानव ने पहले जीवों के जैसा ही जीने का शुरुआत किया।  लेकिन संवेदनाओं को राजी करने के लिए जीने का अभ्यास करते-करते मानव ने जीवों से भिन्न जीना शुरू कर दिया।  इसके चलते मानव द्वारा मनाकार को साकार करना तो हो गया पर मनः स्वस्थता का भाग वीरान पड़ा रहा.   मानव की चेतना का स्तर "जीव चेतना" ही रहा. जीवचेतना में मानव दुखी/समस्याग्रस्त रहता है.  मानवचेतना में मानव सुखी/समाधानित रहता है.

मध्यस्थ दर्शन का अध्ययन मानव के जीवचेतना से मानवचेतना में संक्रमित होने के अर्थ में है. 

- श्री ए नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

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