ANNOUNCEMENTS



Thursday, April 1, 2010

मध्यस्थ क्रिया

प्रकृति की किसी भी वस्तु के "बनने" की कुछ प्रक्रिया होती है - उसको कहा "सम" या "उद्भव"। उसके "बिगड़ने" की भी कुछ प्रक्रिया होती है - उसको कहा "विषम" या "प्रलय"। वस्तु के "बने रहने" की सम-विषम से मुक्त जो प्रक्रिया होती है - उसको कहा "मध्यस्थ" या "विभव"।

प्रकृति की हर अवस्था के "बने रहने" या "मध्यस्थता" का एक स्वरूप होता है - जिससे उस अवस्था की परंपरा बनी रहती है। जैसे - पदार्थ-अवस्था परिणाम-अनुषंगी विधि से परंपरा है। पदार्थ के "बनने" या गठन होने की प्रक्रिया होती है, "बिगड़ने" या विघटन होने की भी प्रक्रिया होती है। पदार्थ के "बने रहने" या "मध्यस्थता" का स्वरूप होता है - परिणाम-अनुशंगियता। परिणाम मूलतः है - परमाणु-अंशों के गठन की मात्रा। उसी क्रम में -प्राण-अवस्था बीजानुषंगी विधि से परंपरा है। जीव-अवस्था वंश-अनुषंगी विधि से परंपरा है।

मनुष्य-जाति में जब इस सिद्धांत को ले गए तो पता चलता है - "क्रिया-पूर्णता" और "आचरण-पूर्णता" ही मनुष्य-परंपरा के "बने रहने" का स्वरूप है। जीव-चेतना विधि से मानव-परंपरा के "बने रहने" का वैभव स्थिर नहीं होता है। मानव-चेतना, देव-चेतना, दिव्य-चेतना विधि से ही मानव-परंपरा के "बने रहने" का वैभव स्थिर हो पाता है। ज्ञानार्जन से पहले "उद्भव" या "प्रलय" के पक्ष में मनुष्य काम करता रहता है। ज्ञानार्जन के बाद "बने रहने" के स्वरूप में मानव-परंपरा वर्तमान होता है। पीढी से पीढी तक चलने वाली विधि को हम "मध्यस्थ" कह रहे हैं। मध्यस्थता का यह स्वरूप सम और विषम आवेशों को सामान्य बनाने में प्रवृत्त रहता है।

मध्यस्थता स्थिति में मध्यस्थ-बल है, और गति में मध्यस्थ-शक्ति है। सम और विषम आवेश भी स्थिति में बल और गति में शक्ति के स्वरूप में होता है। वैसे ही मध्यस्थता (आवेश मुक्ति) भी स्थिति में बल और गति में शक्ति है। पदार्थ-अवस्था से ज्ञान-अवस्था तक ऐसे ही है।

मनुष्य के सन्दर्भ में - मनुष्य जागृत होने पर आवेश-मुक्त या मध्यस्थ होता है और सभी आवेशों को सामान्य बनाने में प्रवृत्त रहता है। जागृत होने से पहले मनुष्य स्वयं आवेशित रहता है, तो आवेशों को सामान्य बनाने का काम कैसे करेगा?

प्रश्न: सत्ता को आपने "मध्यस्थ" कहा है। उससे क्या आशय है?

प्रकृति चार अवस्थाओं के रूप में सत्ता में है। सत्ता प्रकृति की क्रियाओं से निष्प्रभावित रहता है। सत्ता पर प्रकृति की क्रियाएं प्रभाव नहीं डालती हैं। प्रकृति की हर क्रिया के मूल में सत्ता-सम्पन्नता रहता ही है। साम्य सत्ता में सम्पूर्ण क्रियाएं डूबे, भीगे, घिरे होने पर भी सत्ता में कोई अंतर नहीं आता है। इसीलिये सत्ता को "मध्यस्थ" कहा है।

मध्यस्थ-सत्ता में संपृक्तता के फलन में ही प्रकृति में मध्यस्थता है। प्रकृति में मध्यस्थता परंपरा के स्वरूप में प्रगट है। सत्ता ही मानव-परंपरा में "ज्ञान" रूप में व्यक्त होता है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००८, अमरकंटक)

No comments: