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Saturday, March 20, 2010

समझदारी के साथ ईमानदारी



सहअस्तित्व समझ में आए बिना, जीवन समझ में आए बिना - मनुष्य का जीना तो बनेगा नहीं! समझदार होना है, फ़िर समझदारी को जीने में प्रमाणित करना है - इतनी सी बात है। जीवन-जागृति मनुष्य-परम्परा में ही प्रमाणित होती है। मानव परम्परा में यह चार जगह पहुँचता है - आचरण, शिक्षा, संविधान, व्यवस्था। इन चार जगह में यदि जीवन जागृति पहुँचा, तो मानव परम्परा प्रमाणित हुआ।

अभी इस प्रस्ताव पर आधारित व्यवस्था बनी नहीं है, इसलिए "प्रवर्तनशील" होने की आवश्यकता है। प्रवर्तनशील होना = दूसरों तक इस बात को पहुंचाने के लिए प्रयासरत होना। व्यवस्था हो जाने के बाद "स्वभावशील" होना बनेगा। स्वाभाविक रूप में एक पीढी अपनी समझदारी को आगे पीढी को अर्पित करेगा।

प्रश्न: क्या स्वयं अनुभव होने से पहले दूसरों को समझाने निकल पड़ने में कोई परेशानी नहीं है? क्या ऐसा करने से स्वयं के अध्ययन से ध्यान बंटने की सम्भावना नहीं है?

उत्तर: "सम्भावना" के अर्थ में आपकी बात सुनने योग्य है, सोचने योग्य है। उसके साथ यह भी देखने की जरूरत है - मनुष्य व्यक्त होता ही है। छुप कर रहने में कोई मनुष्य राजी नहीं है। मनुष्य जैसा और जितना समझता है, उतना व्यक्त होता ही है। जिसकी जितनी और जैसे व्यक्त होने की प्रवृत्ति है, वह उतना और वैसे व्यक्त होता ही है। उसके साथ ईमानदारी जुडी ही रहती है।

समझ के इस प्रस्ताव को लेकर ईमानदारी के साथ ही चला जाता है, या चलना पड़ता है। बेईमानी इस बात के साथ टिक नहीं पाता है। टिकता भी है तो क्षणिक रूप में।

हमारा लक्ष्य है - अनुभव का जीने में प्रमाणित होना। अभी हम जहाँ हैं - वह हमारी आज की यथा-स्थिति है। लक्ष्य और यथा-स्थिति - इन दोनों के प्रति स्पष्ट हुए बिना आगे बढ़ने का कोई स्पष्ट कार्यक्रम बनता नहीं है।

अधूरे में कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता।

फ़िर भी जो इस रास्ते पर जो जितना प्रवर्तनशील है, उसके लिए वह धन्यवाद का पात्र है। प्रवर्तन-शील होने की चार stages बनी। इन चार stages में (इस बात से जुड़े) सभी हैं।

(१) प्रस्ताव की सूचना देने में प्रयासरत होना।
(२) पढाने के लिए प्रयासरत होना।
(३) समझाने के लिए प्रयासरत होना।
(४) प्रमाणित करने के लिए प्रयासरत होना।

सूचना दिया, उससे भी व्यवस्था बनने के लिए गति में कुछ योगदान हुआ। जो आज सूचना ही देता है, कल उसकी पढने में प्रवृत्ति बनती है। जो आज पढाता है, उसकी कल समझने में प्रवृत्ति बनती है। जो आज समझाता है, कल उसकी प्रमाणित करने की प्रवृत्ति बनती है। इस तरह एक से एक कडियाँ जुडी हैं।

प्रमाण परम है। प्रमाण के बाद परम्परा बनती ही है। यह बात सही है - प्रमाण के बिना परम्परा नहीं है।  इस बात में जीवन विद्या परिवार में सभी सहमत हैं.  निष्ठा की स्थिति जरूर लोगों की अलग अलग है.  इसको आंकलित किया जा सकता है.

सार्वभौम व्यवस्था में परिवार से विश्व-परिवार तक जीने की व्यवस्था है.  समाधान समृद्धि पूर्वक जिए बिना कोई विश्वपरिवार में भागीदारी नहीं करेगा, चोरी ही करेगा!  समझने के बाद आदमी चोरी कर नहीं सकता.  समझदारी से समाधान संपन्न होने पर समृद्धि भावी हो जाती है.

व्यवस्था का पूरा ढांचा-खांचा दरिद्रों का नहीं है.  व्यवस्था समाधान-समृद्धि संपन्न व्यक्तियों से बनती है.  समाधान-समृद्धि के बिना एक भी आदमी व्यवस्था में जियेगा नहीं.

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

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