ANNOUNCEMENTS



Thursday, September 3, 2009

अनुभव की सीढी

अस्तित्व में प्रकटन है। पदार्थ-अवस्था से प्राण-अवस्था प्रकट हुई है। प्राण-अवस्था से जीव-अवस्था प्रकट हुई है। जीव-अवस्था से ज्ञान-अवस्था प्रकट हुई है।

परमाणु में विकास का अन्तिम-स्वरूप "जीवन" है।

भौतिक-रचना के विकास-क्रम का अन्तिम-स्वरूप यह "धरती" है।

भौतिक-रासायनिक रचना के विकास-क्रम का अन्तिम-स्वरूप "मानव-शरीर" है।

धरती पर मानव-शरीर का प्रकटन "नियति-विधि" से हुआ है। मानव-शरीर के धरती पर प्रकटन में मानव का कोई हाथ नहीं है। धरती के गठित/रचित होने में मानव का कोई हाथ नहीं है। धरती पर ही मानव रह सकता है। मानव के धरती पर रहने के लिए, मानव से पहले जो कुछ भी धरती पर प्रकट हुआ, उसके बने रहने की आवश्यकता है। प्रकटित वस्तु के प्रकटन के पीछे की सारी वस्तुएं बनी रहने पर ही प्रकटित वस्तु रह सकता है। प्रकटन से पहले की सभी वस्तुएं मिट जाएँ, और प्रकटित वस्तु रह जाए - यह कैसे हो?

अस्तित्व में मनुष्य ही "कर्ता" पद में है। मनुष्य के अलावा बाकी सभी वस्तुएं नियति-क्रम में अपने प्रकटन के अनुरूप "कार्य" करते रहते हैं।

पदार्थ-अवस्था की इकाइयां अपने गठन के अनुसार "कार्य" करती रहती हैं।

पेड़-पौधे बीज के अनुरूप "कार्य" करते रहते हैं।

"देखने" वाली इकाई जीवन ही है। भौतिक-रासायनिक वस्तुओं में "देखने" की कोई बात नहीं होती।

जीव-जानवर अपने वंश के अनुरूप "कार्य" करते रहते हैं। जीवों में वंश के अनुरूप जीवन शरीर को चलाता रहता है।

नियति-क्रम में मनुष्य-शरीर का प्रकटन हुआ। मनुष्य-शरीर की ही विशेषता है कि जीवन उसे जीवंत बनाते हुए कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता को प्रकट करने लगा। कल्पनाशीलता के बदौलत मनुष्य ने अपने परम्परा स्वरूप में "होने" को स्वीकार लिया है। लेकिन कल्पनाशीलता की सीमा में मनुष्य का अपने "व्यवस्था में रहने" के स्वरूप को स्वीकारना नहीं बन पाया।

मनुष्य के "व्यवस्था में रहने" के लिए उसे एक और सीढ़ी चढ़ने की ज़रूरत है। वह है - अनुभव की सीढ़ी! अनुभव हर व्यक्ति के पास हो, और परम्परा में मानव-चेतना प्रमाणित हो। हर व्यक्ति के पास अनुभव को मानव-चेतना विधि से जी कर प्रमाणित करने की सुविधा हो। इसके लिए ही मध्यस्थ-दर्शन के अध्ययन का प्रस्ताव है।

इसमें किसको क्या विपदा है, आप बताओ?

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

No comments: