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Sunday, March 22, 2009

रचना-विरचना

परमाणु में स्वभाव-गति का स्वरूप है - एक से अधिक परमाणु-अंशों का स्वयं-स्फूर्त विधि से परस्पर अच्छी निश्चित दूरी में रह कर क्रियाशील रहना। हर परमाणु स्वयं-स्फूर्त विधि से अणु के रूप में, हर अणु स्वयं-स्फूर्त विधि से रचना के रूप में वैभवित होने के लिए प्रवृत्त है। यही इनकी स्वभाव-गति है।

स्वभाव-गति का मतलब है - यथास्थिति में संतुलन, और विकास में प्रवृत्ति।

स्वभाव-गति प्रतिष्ठा में ही रचना और विरचना प्रवृत्ति होती है। आवेशित-गति में विरचना प्रवृत्ति ही होती है।

भौतिक-रासायनिक संसार के क्रियाकलाप में "रचना-विरचना" स्वभाव-गति का स्वरूप है। यह हर रचना-विरचना में अध्ययन किया जा सकता है। रचना-क्रम में विकास को प्रकाशित करने के लिए सर्वाधिक भौतिक-रासायनिक संसार का द्रव्य प्रवृत्त रहता है। अत्यल्प वस्तु (परमाणु) गठन-पूर्णता लक्ष्य की ओर हैं।

रचनाओं में विकास (श्रेष्ठता) इस धरती पर विविध स्वरूप में प्रमाणित हो चुकी है। यह अंडज, पिंडज, और उद्भिज परम्परों के रूप में प्रमाणित है। यह सब रासायनिक संसार का रचना-वैभव है। मनुष्य-शरीर का प्रकटन भी रचना-क्रम में विकास पूर्वक इस धरती पर हुआ।

विरचना भी पूरकता क्रम में सार्थक है। नियम से रचना है, नियम से ही विरचना है। विरचना प्रवृत्ति रचना प्रवृत्ति का पोषक होना पाया जाता है। यह आवश्यक भी है। रचना-विरचना कार्य एक दूसरे का पूरक है।

मनुष्य-शरीर प्राण-कोशिकाओं से रचित एक भौतिक-रासायनिक रचना है। मनुष्य-शरीर गर्भाशय में रचित होता है, एक अवधि के बाद यह विरचित होता है। मनुष्य-शरीर द्वारा ही जीवन अपनी जागृति को प्रमाणित कर सकता है।

- स्त्रोत : मध्यस्थ-दर्शन (अनुभवात्मक अध्यात्मवाद)

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