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Sunday, December 14, 2008

जीवन में मूल्यांकन

मूल्यांकन का मतलब - सम्पूर्ण पहचान। शरीर का पहचान मन करता है। मन शरीर की पूरी हैसियत को पहचानता है।

प्रश्न: "मन शरीर की पूरी हैसियत को पहचानता है" - इसका क्या अर्थ है?

उत्तर: मन शरीर क्रियाओं और शरीर में होने वाली पाँच संवेदनाओं (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध) को पहचानता है।

मन में मान्यता का अधिकार रखा है। शरीर में जो संवेदनाओं को पहचाना तो जीवन शरीर को ही जीवन मान लेता है। यही भ्रम का आधार है। मन ने जैसा पहचाना वैसा ही वृत्ति सहमत हो कर, चित्त में चित्रण सहमत हो जाता है। वहीं तक lock है अभी।

वृत्ति मन को पहचानता है। अर्थात वृत्ति मन का मूल्यांकन करता है। मन ने संवेदनाओ को जो पहचाना उसमें सही ग़लत क्या हुआ - यह तुलन/विश्लेषण वृत्ति में होता है। अनुभव से पहले संवेदनाओं के अर्थ में ही प्रिय-हित-लाभ दृष्टियों से यह सही-ग़लत को तुलन करना बनता है। मन में जो संवेदनाओ की पहचान हुई - उसके अनुमोदन में ही वृत्ति में तुलन, और चित्त में चित्रण हो जाता है। इस तरह वृत्ति शरीर मूलक दृष्टियों से मन का दृष्टा बना रहता है।

चित्त में वृत्ति का मूल्यांकन होता है। चित्त इस बात का दृष्टा होता है कि वृत्ति में क्या तुलन हुआ। यह चित्रण में जाता है। शरीर मूलक जीने में चित्रण से आगे की कोई बात होती नहीं है।

जीवन मूलक जीने में अनुभव से शुरू करते हैं। वह मन से शुरू नहीं होता। अनुभव के अनुरूप बुद्धि, चित्त, वृत्ति, और मन हो जाते हैं। मन के द्वारा शरीर के साथ प्रमाण होता है। इस तरह शरीर के द्वारा जीवन अपने आप को प्रमाणित करता है। इस तरह वृत्ति में प्रिय-हित-लाभ के स्थान पर न्याय-धर्म-सत्य दृष्टियों के आधार पर तुलन होता है। बोध में सह-अस्तित्व की स्वीकृति रहती है। चिंतन पूर्वक न्याय-धर्म-सत्य को प्रमाणित करने की विधि आ गयी। यह होने से जीवन की दसों क्रियाएं प्रमाणित हो गयी।

जीवन मूलक विधि से जीने में वस्तु की पूरी पहचान (रूप, गुण, स्वभाव, और धर्म) तथा सह-अस्तित्व की पूरी पहचान - इन दोनों की पूरी पहचान होती है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २००८, अमरकंटक)

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