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Monday, July 13, 2009

स्थिरता और निश्चयता

सत्ता ही ऊर्जा है, जिसमें संपृक्त होने के कारण प्रकृति की प्रत्येक इकाई चुम्बकीय बल संपन्न है। परमाणु-अंश भी जो एक दूसरे को पहचानते हैं, वे चुम्बकीय-बल सम्पन्नता के आधार पर ही पहचानते हैं। फल-स्वरूप परमाणु-अंश में व्यवस्था-प्रवृत्ति होने का प्रमाण मिलता है। इसकी गवाही है - दो अंश के परमाणु का आचरण निश्चित है। उसकी उपयोगिता निश्चित है। उसकी पूरकता निश्चित है।

उसी प्रकार एक प्राण-कोषा बल-संपन्न होने से अपने प्राण-सूत्रों में रचना-विधि के अनुसार कार्य करता है। एक रचना-विधि के पूरा होने पर दूसरी रचना-विधि उनमें स्वयं-स्फूर्त उभर आता है। जबकि विज्ञानी लोग बताते हैं - प्राण-कोषायें गलती करते हैं, फल-स्वरूप विविध तरह की रचनाएँ प्रकट हुई। इस पर प्रश्न बनता है - पहली जो प्राण-कोषा बनी वह किसकी गलती से बन गयी? पहली जो रचना बनी, उसकी रचना-विधि उसके प्राण-कोषा में था कि नहीं? क्या वह बिना रचना-विधि के ही रचना हो गयी? प्राण-सूत्रों में रचना-विधि के साथ ही रचना हुआ - यह विज्ञानी लोग मानते हैं। वह रचना-विधि किस गलती से हो गयी? - यह बता नहीं पाते हैं।

मध्यस्थ-दर्शन में यहाँ यह प्रस्तावित है - हर प्राण-कोषा में निहित प्राण-सूत्रों में रचना-विधि होती है, वह रचना बीज-वृक्ष परम्परा के रूप में स्थापित होने के बाद प्राण-कोषाओं में उत्सव होता है। जिसके फलस्वरूप उन्ही प्राण-सूत्रों में दूसरी अधिक-उन्नत रचना-विधि प्रकट हो जाता है। इस प्रकार प्राण-अवस्था की परम्पराएं एक से दूसरी क्रम वत निकलती चली आयी। इसमें मनुष्य कुछ भी हस्तक्षेप करता है, तो उसकी परम्परा नहीं बनती। मनुष्य जो genetic engineering द्वारा कर रहा है, उससे यही हो रहा है।

विज्ञानी अस्तित्व के मूल में अस्थिरता और अनिश्चयता को बताते हैं। जबकि मध्यस्थ-दर्शन में अस्तित्व में स्थिरता और निश्चयता से शुरुआत करते हैं।

आप अस्थिरता-अनिश्चयता चाहते हैं, या स्थिरता-निश्चयता? इस प्रश्न का उत्तर हर व्यक्ति स्थिरता और निश्चयता के पक्ष में ही देता है। अस्तित्व में जो नहीं है, उसको मनुष्य चाह भी नहीं सकता। अस्तित्व में जो है, उसी को मनुष्य चाह सकता है, प्रयोग कर सकता है, उसी के साथ सुख या दुःख को भोगता है।

पदार्थ-अवस्था से प्राण-अवस्था, प्राण-अवस्था से जीव-अवस्था, जीव-अवस्था से मानव ज्ञान-अवस्था की इकाई के रूप में प्रकट हुआ। मानव ज्ञान-अवस्था के होते हुए भी जीवों के सदृश जिया। ऐसे जीव-चेतना में जीने से मानव ने मानव के साथ अपराध किया, और धरती के साथ अपराध किया। प्रधान तौर पर सुविधा-संग्रह के लिए, और सीमा-सुरक्षा के लिए धरती को घायल करना हुआ। सीमा-सुरक्षा में दो ही काम होते हैं - युद्ध करना, या युद्ध के लिए तैय्यारी करना। इससे युद्ध कहाँ रुका, या रुकेगा? अपराध-मुक्त विधि से जीने के लिए मध्यस्थ-दर्शन एक अध्ययन-गम्य प्रस्ताव है, जिसके अनुसार:

अस्तित्व स्थिर है। अस्तित्व में विकास और जागृति निश्चित है।
गठन-पूर्णता ही विकास है।
मानव-चेतना विधि से जीना ही जागृति है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

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