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Friday, November 30, 2012

अमूर्त की चाहत में मानव जीता है।



- श्री ए नागराज के साथ प्रवीण और आतिशी के संवाद पर आधारित (जुलाई 2010, अमरकंटक)

अस्तित्व दर्शन - 2



अस्तित्व दर्शन - 1



अनुभव


- श्री ए नागराज के साथ प्रवीण और आतिशी के संवाद पर आधारित (जुलाई 2010, अमरकंटक)

जीवन और शरीर


- श्री ए नागराज के साथ प्रवीण और आतिशी के संवाद पर आधारित (जुलाई 2010, अमरकंटक)

तदाकार-तद्रूप



अर्थ को समझना प्रतिबिम्ब है।


श्री ए नागराज के साथ प्रवीण और आतिशी के संवाद पर आधारित (जुलाई 2010, अमरकंटक)

Wednesday, November 28, 2012

ज्ञान अमूर्त वस्तु है

- श्री ए नागराज के साथ प्रवीण और आतिशी के संवाद पर आधारित (जुलाई 2010, अमरकंटक)

Friday, November 23, 2012


जीवन विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन - अभ्युदय संस्थान, अछोटी (16 से 19 नवम्बर, 2012) 

Thursday, November 22, 2012

अपराध मुक्ति

समझदारी से समाधान और श्रम से समृद्धि पूर्वक यदि हर परिवार जीता है तो अपराध मुक्ति का रास्ता बनता है।  हर व्यक्ति के अपराध मुक्त होने की यही विधि है।  दूसरी किसी विधि से मानव जाति अपराध मुक्त होगा ही नहीं।  चुप हो जाने से सारे मानव अपराध मुक्त होंगे नहीं।  एक व्यक्ति यदि चुप हो भी जाए तो उससे सर्वमानव अपराध मुक्त हो जाए, ऐसा होता नहीं है।

न्याय विधि से जीने का कोई स्वरूप और योजना आपके पास न हो तो अपराध मुक्ति कैसे होगा?  न्याय विधि से जीने का स्वरूप है - "अखंड समाज - सार्वभौम व्यवस्था" सूत्र-व्याख्या।  इसके लिए योजना है - शिक्षा-संस्कार योजना, जीवन विद्या योजना, परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था योजना।  इसके लिए हर व्यक्ति के जागृत होने की ज़रुरत है।  एक व्यक्ति के जागृत होने भर से काम नहीं चलेगा।  हर व्यक्ति समझदार होने पर ही प्रमाणित होगा।  प्रमाण ही जागृति है।

यह प्रस्ताव सबके लिए सुगम है, सबकी जरूरत है, परिस्थितियां इस प्रस्ताव की आवश्यकता निर्मित कर रही हैं।  मानव के पुण्य वश ही यह घटित हो रहा है।  इसीलिये मैं भरोसा करता हूँ - मानव इसको स्वीकारेगा, सुखी हो जाएगा।  इस तरह मुझे सर्वशुभ का रास्ता साफ़-साफ़ दिखाई देने लगा।  तब मैं इसमें जूझ पड़ा।  कब तक?  जब तक सांस चलेगा, तब तक!

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी 2007, अमरकंटक)

समाधान प्रमाणित हो जाना शान्ति है।

चुप हो जाना शान्ति नहीं है।  समाधान प्रमाणित हो जाना शान्ति है।  दुःख है - हल्ला-गुल्ला मचाना, गुहार करना।   अब क्या किया जाए?  समाधान के लिए पूरा का पूरा व्यवस्था दिया जाए।  वह अध्ययन विधि से ही होगा।  अध्ययन अनुभवमूलक विधि और अनुभवगामी पद्दति के संयोग से ही होगा।  अनुभवमूलक विधि न हो और अनुभवगामी पद्दति निकल जाए - यह हो नहीं सकता।  अनुभवमूलक विधि प्रमाण के साथ ही होगी।  अनुभव ही प्रमाण परम है।  प्रमाण परम विधि से यदि हम अध्ययन करायें तो वह अनुभव तक पहुँचता ही है।

साक्षात्कार पूरा होते तक अध्ययन है।  साक्षात्कार होता है तो उसके बाद बोध और अनुभव होता ही है।  क्या साक्षात्कार होना है?  सह-अस्तित्व स्वरूपी अस्तित्व साक्षात्कार होना है।  जीवन जागृति रुपी महिमा सहित साक्षात्कार होना है।  ये दो बिन्दुएँ साक्षात्कार होने पर अनुभव होता है।  इन दो बिन्दुओं को साक्षात्कार करने में किसको क्या तकलीफ है?  मैंने इस सार को पाने के लिए एक परमाणु अंश से लेकर धरती जैसी रचना तक, एक प्राणकोषा से लेकर अनंत रचनाओं तक, दो अंश के परमाणु से लेकर गठनपूर्ण परमाणु तक सब कुछ साक्षात्कार किया।  इतनी चीजों का साक्षात्कार किये बिना मैं अनुभव पूर्ण हुआ, यह स्वीकार ही नहीं सकता था।  अनुभव पूर्ण होना स्वीकारने से मैं इस जगह पहुँच गया कि इसको अनुभवगामी पद्धति से लोकव्यापीकरण करना सुगम है।  तब इस कार्यक्रम को शुरू किया।

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी 2007, अमरकंटक) 

Monday, November 19, 2012

अध्ययन का एक "उपदेश"

वस्तु वास्तविकता को व्यक्त करता है।  वास्तविकता "होने" और "रहने" के रूप में है।  वस्तु "होने" और "रहने" के रूप में पहचान लेना ही साक्षात्कार है।  अस्तित्व में कोई ऐसा भाग नहीं है जो "होने-रहने" के स्वरूप में न हो।

प्रत्येक एक अपने ढंग से क्रमिक रूप से जीवन में साक्षात्कार होता है।  सत्ता में संपृक्त चारों अवस्थाएं जब पूरा साक्षात्कार हो जाता है तो अनुभव होता है।  अनुभव सहअस्तित्व में, से, के लिए है।  बोध हो गया हो पर अनुभव न हो - ऐसा हो ही नहीं सकता।  बोध अपूर्ण नहीं होता।  बोध के बाद अनुभव होता ही है, उसमे कोई समय की बात नहीं है।    अध्ययन विधि में सम्पूर्ण सहअस्तित्व साक्षात्कार पूरा होने में जो समय लगना है, वह लगता है।

अनुभवगामी विधि से बोध होने पर यह प्रतीत होता है कि "मैं प्रमाणित कर सकता हूँ"। अनुभव पूर्ण होने पर बुद्धि में जो अनुभव-प्रमाण बोध होता है - उसका नाम है, ऋतंभरा।  सत्य को प्रमाणित करने की शक्ति (योग्यता) है ऋतंभरा।  अनुभवमूलक विधि से ही ऋतंभरा आता है, उससे पहले आता नहीं है।  

प्रमाणित करने के लिए चित्त में चिंतन होता है।  उसके बाद चित्रण, तुलन, विश्लेषण, आस्वादन और चयन विधि से प्रमाणित होना बन जाता है।  चयन मानव परंपरा में ही होता है, चारों अवस्थाओं के साथ ही होता है।  सह-अस्तित्व का वैभव ऐसा बना है।  प्रमाणित होने के क्रम में संबंधों का निर्वाह है, जिसमे मूल्यों की अभिव्यक्ति है।  संबंधों का निर्वाह नहीं हो पाना ही भ्रम है, जीव-चेतना है।

प्रश्न:  अध्ययन करने में "अनुभव की रोशनी" और "अनुभव के साक्षी" से क्या आशय है?

उत्तर:  अध्ययन करने वाले वाले की आत्मा में अनुभव करने की "क्षमता" रहता ही है - उसी को "अनुभव के साक्षी" कहा है.   दूसरे, अध्ययन कराने वाला अपने "अनुभव की रोशनी" में ही अध्ययन कराता है।  इस तरह - विद्यार्थी "अनुभव के साक्षी" में अध्ययन करता है, और अध्यापक "अनुभव की रोशनी" में अध्ययन कराता हैं।  परंपरा विधि से अध्ययन है।

प्रश्न: आप का एक "उपदेश" भी है - "जाने हुए को मान लो, माने हुए को जान लो".  अध्ययन के लिए क्या  हमें आपको "मानना" होगा?

उत्तर:  यही एक उपदेश (उपाय सहित आदेश) है।  अध्यापक के जाने हुए को आप मान लेते हो, फिर उस माने हुए को अध्ययन के फल में अनुभवमूलक विधि से आप जान लेते हो।  अध्ययन कराने वाले व्यक्ति को स्वीकारे बिना अध्ययन कैसे होगा?

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त 2007, अमरकंटक)

ज्ञान और व्यापक वस्तु

ज्ञान और व्यापक वस्तु एक ही है।  जीवन संपृक्त रहने के आधार पर व्यापक वस्तु "ज्ञान" कहलाया।  जड़ प्रकृति को व्यापक वस्तु ऊर्जा के रूप में प्राप्त है।  ज्ञान जीवन में ही ज्ञात होता है।  जीवन ही "ज्ञाता", "दृष्टा" और "कर्ता" स्वरूप में है।  मानव, जो जीवन और शरीर का संयुक्त स्वरूप है, "भोक्ता" है।  भौतिक-रासायनिक वस्तुओं की प्रतिक्रिया शरीर के साथ है।  ज्ञान संपन्न होने पर ही मानव वांछित फल-परिणाम को प्राप्त कर सकता है।  भ्रमित रहते तक मानव वांछित फल-परिणाम को प्राप्त नहीं कर सकता।  जैसे - मानव सुख चाहता है, पर भ्रमित रहते तक सुखी रहता नहीं है।

पदार्थ-अवस्था में परिणाम विधि से परंपरा है।  प्राण-अवस्था में बीज विधि से परंपरा है।  जीव-अवस्था में वंश विधि से परंपरा है।  परंपरा किसी अवस्था की आवर्तनशीलता विधि है।  यह ज्ञान मानव को होता है।  साथ ही मानव को यह भी ज्ञान होता है कि इन अवस्थाओं का क्रियाकलाप ऊर्जा-सम्पन्नता वश है।  ज्ञान-अवस्था में संस्कार विधि से परंपरा है।  मानव में न्याय, धर्म,  सत्य की आवर्तनशीलता है।

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त 2007, अमरकंटक)

एक आधारभूत बदलाव


मध्यस्थ दर्शन के सह-अस्तित्ववादी प्रस्ताव से हमारे बुजुर्गों ने “ज्ञान” के लिए जो अपेक्षा व्यक्त किया है – वह भी पूरा होता है.  दूसरे, विज्ञानियों ने “जीने की विधि” के लिए जो अपेक्षा व्यक्त किया है – वह भी पूरा होता है.  विज्ञानियों को परमाणु में पांच कोशों (अन्नमय कोष, प्राणमय कोष, मनोमय कोष, आनंदमय कोष, विज्ञानमय कोष) की इस प्रकार से पहचान करा दें, परमाणु में स्थिरता और निश्चयता के स्वरूप को समझा दें - तो वे कैसे इसे नकारेंगे?  आज की तारीख में हम नहीं कह सकते हैं, कि यह संयोग हो पायेगा या नहीं...  लेकिन इतना तो निश्चित है, यदि किसी विज्ञानी ने इस बात को सूंघ लिया तो वह इसको छोडेगा नहीं!  विज्ञान में “अस्थिरता-अनिश्चयता” के स्थान पर “स्थिरता-निश्चयता” का आना एक आधारभूत बदलाव होगा.

श्री ए. नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २००८, अमरकंटक)

Saturday, November 17, 2012

बुद्धि

वस्तु है, तभी उसकी सूचना है।  सूचना चाहे गलत हो या सही - वस्तु है, तभी सूचना है।  देखने में वस्तु की आकृति गृहण का कार्य बुद्धि ही करता है, जो चित्त (चित्रण) में संग्रहित होता है।  बुद्धि यदि शामिल न हो तो कुछ दिखाई न दे!  बुद्धि देखने के क्रियाकलाप में शामिल तो रहता है, पर भ्रमित क्रियाकलापों को स्वीकारता नहीं है।  बुद्धि शाश्वत वस्तु को ही स्वीकारता है।  बुद्धि जो स्वीकारता नहीं है, इसीलिये उसको "अहंकार" भी कहा है।

बुद्धि अर्थ को ही ग्रहण करता है, शब्द को ग्रहण नहीं करता।  मानव द्वारा अपनी कल्पना से अर्थ निकाले अर्थ का जब प्रमाण होता नहीं है, तो वह बुद्धि को स्वीकार नहीं होता।

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अक्टूबर 2010, अमरकंटक)

Wednesday, November 14, 2012

आचरण और व्यक्तित्व

आचरण ध्रुवीकृत होने से व्यक्तित्व स्थिर होता है।

आचरण ध्रुवीकृत होने का मतलब है - मूल्य, चरित्र, नैतिकता की प्रमाण परंपरा।

व्यक्तित्व है - आहार, विहार, व्यवहार।

आचरण व्यवस्था को छूता है।  व्यवस्था में जीने का स्वरूप व्यक्तित्व है।  निश्चित आचरण की प्रमाण परंपरा ही व्यक्तित्व में स्थिरता लाता है।  प्रमाण परंपरा में मानव का "आहार" निश्चित होता है।  "व्यवहार" निश्चित होता है।  और इसके पक्ष में "विहार" भी निश्चित होता है।

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त 2006, अमरकंटक)

"सही" और "गलत"

मानव परंपरा में ही "सही" और "गलत" की बात है।  मनुष्येत्तर संसार में कोई अपराध होता ही नहीं है , वे कोई "गलती" करते नहीं हैं।   मनुष्येत्तर संसार का सारा क्रियाकलाप "संतुलन" और "प्रगटन" के अर्थ में है।  मानव ने जीवों के सदृश मार-काट करके संतुलित होने का प्रयत्न किया, वह "गलत" हो गया।  

मानव-चेतना "सही" है।  जीव-चेतना "गलत" है।   जीव-चेतना में कोई सुधार नहीं करना है।  जीव-चेतना के स्थान पर मानव-चेतना को आना है।  श्रेष्ठता की शुरुआत मानव-चेतना से है।  मानव चेतना आने के बाद उससे अधिक श्रेष्ठ देव-चेतना और दिव्य-चेतना के लिए प्रयास है।  

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त 2006, अमरकंटक)

Friday, November 9, 2012

मानव का जीना

अभी तक मानव ने क्रमशः रूप, बल, धन और पद के अनुसार पहचान किया है.  इस तरह मानव का जीना “भद्दे” से “और भद्दा” होता गया है.  मानव में जानने-मानने के आधार पर पहचानने-निर्वाह करने की बात है.  इन चारों में से कुछ भी छोड़ कर, आधा काट कर, केवल एक बात को लेकर, क्या हम कुछ भी नेक कर पायेंगे?  अभी तक मानव जाति “मानने” के आधार पर चल रहा है.  यह उसमे नियति-प्रदत्त कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता पूर्वक हुआ.  मानव अभी “जानता” कुछ भी नहीं है – चाहे धर्म-गद्दी में बैठा हो या राज-गद्दी में बैठा हो. जानना-मानना प्राथमिक है.  यदि जानना-मानना प्राथमिक हो पाता है, तो उसके लिए क्या करना है – वह बात आती है.  जानने-मानने के लिए यह छोटा सा प्रस्ताव है.  यदि इससे कोई ठौर मिलता है तो बहुत अच्छा, नहीं तो अनुसंधान कर लेना!  मैंने जितना काम किया उसको प्रस्तुत कर दिया.  मैं क्यों ऐसा व्यर्थ में दावा करूँ कि इसके अलावा कुछ नहीं हो सकता!  यदि इससे पूरा पड़ता है तो बहुत अच्छा, नहीं तो और शोध कर लेना.  इस प्रस्ताव से मानव-चेतना, देव-चेतना और दिव्य-चेतना पूर्वक जीने की संभावना तो स्पष्ट हो गया है.  इतना तो मैंने देख लिया है, उसको जी भी लिया है.  इससे ज्यादा क्या जीना होता है – वह आप आगे अनुसंधान कर लेना!  मेरे ऐसा देख लेने और जी लेने से संसार प्रमाणित हो गया, ऐसा कुछ नहीं है.  संसार का प्रमाणित होना अभी दूर ही है.  संसार अपने रंग में डूबा ही है!

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर 2010, अमरकंटक)

Monday, November 5, 2012

स्थिरता - निश्चयता

सह-अस्तित्व स्वरूप में अस्तित्व स्थिर है.  अस्तित्व न घटता है, न बढ़ता है – इसलिए स्थिर है.  विकास और जागृति होना निश्चित है.  अस्तित्व में विकास रहता ही है, जागृति रहता ही है.  इस धरती पर भले ही मानव अजागृत हों, अस्तित्व में कहीं न कहीं जागृति प्रमाणित है ही.  जो है, वही होता है. जो था नहीं वह होता नहीं.  आबादी के आधार पर बर्बादी का गणना है.  भाव के आधार पर अभाव का गणना है.  न्याय के आधार पर अन्याय का गणना है.  पूर्णता के आधार पर ही अपूर्णता की समीक्षा है.

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर 2010, अमरकंटक)

प्रकाशमानता - प्रतिबिम्बन - पहचान


हर इकाई प्रकाशमान है.  प्रकाशमानता का स्वरूप है – रूप, गुण, स्वभाव, धर्म.  सभी इकाइयों का प्रतिबिम्बन सभी ओर रहता है.  इस सिद्धांत को हृदयंगम करने की आवश्यकता है.  प्रतिबिम्बन सभी ओर रहता है तभी इकाई सभी ओर से दिखाई पड़ता है.  प्रतिबिम्बन इकाइयों में परस्पर पहचान का आधार है.  परस्पर पहचान ही परस्परता में निर्वाह का आधार है.  मानव में जानना-मानना के आधार पर पहचानना-निर्वाह करना होता है.

लक्ष्य के लिए प्रकृति की इकाइयों में सारी पहचान है.  लक्ष्य-विहीन कोई पहचान नहीं है.  साम्य सत्ता में संपृक्त रहने से हर इकाई में “लक्ष्य सम्मत पहचान की अर्हता” है.  विकासक्रम, विकास, जागृति-क्रम और जागृति – सह-अस्तित्व में “लक्ष्य” इतना ही है.  साम्य सत्ता अपने में यथावत रहते हुए, सभी उसमें भीगे रहने से यह वैभव हो गया.  “लक्ष्य सम्मत पहचान” की शुरुआत परमाणु-अंशों से है.  सभी परमाणु अंश एक सा होते हुए, परमाणु के गठन में उनकी मात्रा (संख्या) के आधार पर उनकी कार्य-शैली बदलता गया.
लक्ष्य सम्मत पहचान के साथ “प्रक्रिया” आ गयी.  सभी परमाणु-अंश एक सा होते हुए, परमाणु में उनकी मात्रा के आधार पर उनकी कार्य-शैली बदलता गया.  परमाणुओं की प्रजातियां उनमे समाहित अंशों की संख्या भेद से है.  ये परमानुएं प्रयोजनों के आधार पर एक दूसरे की पहचान करते हैं.  ये परमानुएं निश्चित अनुपात (मात्रा) में और बाकी सभी संयोगों के साथ मिलते हैं – तभी अग्रिम रचना और यौगिक संसार का प्रगटन होता है.  यह भी एक बात ध्यान देने की है.

जड़ संसार अपनी यथा-स्थिति में “सम्पूर्णता” के साथ काम करता है.  सम्पूर्णता का मतलब है – त्व सहित व्यवस्था, समग्र व्यवस्था में भागीदारी.  जड़ प्रकृति में पहचानना और निर्वाह करना होता है.  परमानुएं सहवास विधि और यौगिक विधि से एक दूसरे के साथ पहचान-निर्वाह करते हैं.

पेड़-पौधे, वनस्पतियों के बीजों में उनकी रचना का सूत्र बना रहता है.  उसी के आधार पर धरती, हवा, पानी आदि को पहचान-निर्वाह करते हुए वृक्ष-रचना बनता है.  प्राण-अवस्था में पहचान और निर्वाह का आधार “बीज” है.  बीज में प्राण-कोशाएँ सूखे हुए रहते हैं, जो अनुकूल संयोग पाने पर स्पंदन क्रिया को व्यक्त करने लगते हैं, रचना क्रिया को करने लगते हैं.

गाय गाय को पहचानती है, उसके साथ जीती है.  गाय बाघ को पहचानती है, उसके साथ जीती नहीं है.  इससे निकलता है – जीवों में पहचान और निर्वाह का आधार “वंश” है.

मानव में जानने मानने के आधार पर पहचानना और निर्वाह करना होता है.  मानव-चेतना विधि से ही मानव में यह संभव है.  जीव-चेतना विधि से ऐसा न हुआ, न हो सकता है.

अस्तित्व “होने” के रूप में है.  आचरण “रहने” के रूप में है.  “होना” और “रहना” अविभाज्य है.  मानव का “होना” प्राकृतिक है.  मानव ने अपने “रहने” की विधि को अपनाया नहीं है.  आचरण में, शिक्षा में, संविधान में, व्यवस्था में यह आया नहीं है.

सह-अस्तित्व ही नियति है.  सह-अस्तित्व स्वरूप में अस्तित्व नित्य वर्तमान है.  सह-अस्तित्व में प्रत्येक वस्तु ऊर्जा-संपन्न है और क्रियाशील है.  क्रियाशीलता के फलस्वरूप प्रत्येक वस्तु सभी ओर अपनी यथास्थिति (रूप, गुण, स्वभाव, धर्म) के साथ प्रतिबिंबित रहता है.   प्रतिबिम्बन के फलस्वरूप हर परस्परता में “लक्ष्य” के आधार पर पहचानने का गुण है.  विकासक्रम, विकास, जागृति-क्रम और जागृति लक्ष्य है.  जो वस्तु लक्ष्य के अर्थ में अनुकूल होता है, उसके साथ वह अपने रूप, गुण, स्वभाव, धर्म के अनुसार “रहता” है.  जो वस्तु लक्ष्य के अर्थ में अनुकूल नहीं होता है, उसके साथ वह नहीं रहता है.  “रहने” की दो विधियाँ हैं – यौगिक विधि और सहवास विधि.


शब्द का अर्थ प्रतिबिम्बन है.  उस प्रतिबिम्ब के साथ तदाकार होना ही निष्ठा है.  तदाकार होने का औजार हमारे पास है, जो है – कल्पनाशीलता.  हमारी चाहत के अनुसार हमारी कल्पनाशीलता काम करती है.  हम तदाकार होना नहीं चाहें तो तदाकार नहीं होंगे.  हम तदाकार होना चाहेंगे तो तदाकार हो जायेंगे.  यही अड़चन भी है, यही सुगमता भी है, अधिकार भी यही है.  तदाकार हो जाते हैं तो हम वस्तु को समझने लग जाते हैं.  तदाकार हुए बिना सच्चाई को पाया नहीं जा सकता या सच्चाई को समझा ही नहीं जा सकता.  तदाकार नहीं हो पाते हैं तो आँखों की सीमा तक रह जाते हैं.  आँख कोई समझने वाली वस्तु नहीं है.  आँख से जो अधूरा दिखता है, उसको “समझ” मान करके ही आदमी भ्रमित है.  आँखों की सीमा से जो समझ में आता है, उसमे सिवाय धोखे के और कुछ भी नहीं है.  संवेदनाओं के आधार पर कुछ भी करें – धोखा ही होगा, कुंठा ही होगा, निराशा ही होगा, असफलता ही होगा.  अस्तित्व के प्रतिबिम्बन के साथ तदाकार होने पर हम प्रमाणित होते हैं.  प्रमाणित होने का मतलब है – संवेदनाएं नियंत्रित रहना, न्याय-धर्म-सत्य पूर्वक जीना, समाधान-समृद्धि-अभय-सहअस्तित्व पूर्वक जीना, सुख-शान्ति-संतोष-आनंद पूर्वक जीना.  मानव का लक्ष्य यही है.  मानव के लक्ष्य को जांचने की विधि भी यही है.  दूसरी कोई विधि भी नहीं है.


- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर 2010, अमरकंटक)

Thursday, November 1, 2012

भ्रम की पीड़ा

प्रकृति ही जड़-चैतन्य स्वरूप में है तथा जड़-प्रकृति ही चैतन्य प्रकृति में संक्रमित होता है।  चैतन्य प्रकृति जब   तक जीने की आशा से सीमित रहती है, तब तक जीवनी क्रम के रूप में ही प्रिय-हित-लाभ दृष्टियों का आंशिक प्रयोग करते हुए जीवनी क्रम की परम्पराओं को बनाये रखने के रूप में साक्षित है।  यही भ्रम का पहला चरण है।  इस चरण में भ्रम की पीड़ा या बंधन की पीड़ा प्रमाणित नहीं होती।

मानव शरीर रचना अन्य जीव परंपरा में से निष्पन्न होने के पश्चात मानव-परंपरा सहज शरीर रचनाएँ वंशानुक्रम विधि से स्थापित हुई।  मानव परंपरा में भ्रम की पीड़ा प्रमाणित हुई।  भ्रमात्मक क्रियाकलाप जीवन से ही निष्पन्न होता है।  मानव के भ्रमात्मक क्रियाकलाप से अव्यवस्था हुई और अव्यवस्था से पीड़ा हुई।  इस पीड़ा को जीवन ही स्वीकारता है।

जीवन जागृति-क्रम में भ्रम-बंधन को व्यक्त करता है, पीड़ित होता है - फलस्वरूप जागृत होने की आवश्यकता बनती है।  भ्रम-बंधन की पराकाष्ठा में कितनी पीड़ा हो सकती है - ऐसी सभी विधाओं से पीड़ित व्यक्ति को यह देखने को मिलता है - इस पीड़ा से मुक्ति का उपाय अतिआवश्यक है।   इसके लिए यत्न, प्रयत्न, अनुसंधान करने का फल ही है - जागृति का मार्ग प्रशस्त होना।

आशा, विचार, इच्छा बंधन को जागृति-क्रम में व्यक्त होना अति-आवश्यक रहा है, क्योंकि इनके परिणाम में पीड़ाओं का आंकलन होना आवश्यक रहा है।  अस्तित्व और नियति के अनुसार इतनी लम्बी मानव परंपरा को दिशा देने के लिए अथवा दिशा प्रेरित करने के लिए धरती का असंतुलन अवश्यम्भावी था, प्रदूषण की पीड़ा अवश्यम्भावी थी।  जनसंख्या की अधिकता का दबाव और पीड़ा बढ़ना ही था।  मानव में प्रलोभन की पराकाष्ठा का होना आवश्यक था।  भ्रम और बंधन की पीड़ा की पराकाष्ठा किसी न किसी व्यक्ति को होना आवश्यक था।  यह नियतिक्रम में विधिवत घटित हो ही जाता है - क्योंकि अस्तित्व सहज सह-अस्तित्व में परम लक्ष्य और स्थिति निश्चित और स्थिर है।  क्योंकि अस्तित्व स्थिर है और जागृति निश्चित है।

- अनुभवात्मक अध्यात्मवाद से।