ANNOUNCEMENTS



Tuesday, May 8, 2012

देखना और समझना


समझना जीवन में होता है.  देखना जीवंत शरीर द्वारा होता है.

भौतिकवाद ने देखने को प्रमाण मानते हुए, यंत्र को प्रमाण मान लिया.  यहाँ से भौतिकवादी भटक गए.  उसको सुधारने के लिए मध्यस्थ-दर्शन ने प्रस्तावित किया – “देखने का मतलब है – समझना”.  जीवन ही देखता और समझता है.  जीवन समझने के लिए शरीर के द्वारा देखता है.  जीवन के लिए शरीर एक साधन है, एक यंत्र है.  शरीर में शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध इन्द्रियां हैं.  इन्द्रियों को जीवंत बना कर रखने वाला तथा उनके उपयोग से देखने और समझने वाला जीवन है.

प्रश्न: मरने के बाद क्या जीवन “देख” पाता है?

उत्तर: मरने पर जीवन शरीर को छोड़ देता है.  जीवन उस स्थिति में देख और सुन सकता है, किन्तु उस स्थिति में मानव परंपरा में वह प्रमाणित नहीं हो सकता है.

प्रश्न: शरीर छोड़ी हुई स्थिति में क्या जीवन “समझ” पाता है?

उत्तर: नहीं. शरीर को छोड़ने के समय तक जीवन जितना समझा रहता है, उतना ही समझ उसमे शरीर छोडी हुई   स्थिति में रहता है.  जीवन और मानव-शरीर के सह-अस्तित्व में ही समझ का प्रमाण होता है.  मानव परंपरा में उपकार विधि से ही समझा जा सकता है.  

जीवन “समझ” को दो विधियों से हासिल कर सकता है.  (१) शोध, (२) अनुसंधान.  परंपरा से जो मिलता है, उसको जांचना शोध है.  परंपरा से जो नहीं मिलता है, उसके लिए अनुसंधान है.

- श्री ए. नागराज के साथ संवाद के आधार पर (दिसम्बर २००८). 

Wednesday, May 2, 2012

प्रकृति में नियंत्रण


साम्य ऊर्जा (सत्ता) में ही हम (सारी प्रकृति) नियंत्रित रहते हैं.  सत्ता में घिरे रहने से सम्पूर्ण प्रकृति नियंत्रित है.  सत्ता इकाइयों को नियंत्रित “करने वाला” नहीं है.  सत्ता में इकाइयां नियंत्रित हैं.  इकाई के नियंत्रित रहने का “कारण” सत्ता है.  सत्ता में इकाइयां डूबी, भीगी और घिरी हैं.  घिरे रहने का प्रभाव है - नियंत्रण.  डूबे रहने का प्रभाव है – इकाई की कार्य-सीमा.  भीगे रहने का प्रभाव है – ऊर्जा सम्पन्नता.

सत्ता में संपृक्तता वश सम्पूर्ण प्रकृति में व्यवस्था में होने की मूल प्रवृत्ति है.  ऊर्जा सम्पन्नता के आधार पर ही जड़-प्रकृति में व्यवस्था में होने की प्रवृत्ति है.  ज्ञान सम्पन्नता के आधार पर ही चैतन्य-प्रकृति में व्यवस्था में होने की प्रवृत्ति है.  चैतन्य प्रकृति में मानव भी है.  मानव में ज्ञान सम्पन्नता का आरंभिक स्वरूप है – कल्पनाशीलता.  कल्पनाशीलता के आधार पर मानव ने अभी तक जितना भी व्यवस्था के लिए सोचा और किया वह जीव-चेतना के अंतर्गत ही रहा.  जीव-चेतना में मानव का व्यवस्था में जीना बना नहीं.  मानव के व्यवस्था में जीने के लिए समझदारी का परंपरा आवश्यक रहा.  तभी मानव एक दूसरे को समझा पायेंगे और व्यवस्था में जी पायेंगे.  दूसरा कोई रास्ता भी नहीं है.   

-    - श्री ए. नागराज के साथ संवाद के आधार पर (दिसम्बर २००८). 

व्यवस्था में होने की मूल प्रवृत्ति


किसी भी चुम्बकीय पदार्थ के दो ध्रुव बनते हैं.  धरती के भी दो ध्रुव हैं क्योंकि धरती में भी चुम्बकीयता को वहन करने वाले पदार्थ हैं.  धरती के दो ध्रुवों के बीच, धरती के मध्य में एक चुम्बकीय धार बना रहता है.  इसके साथ विकीरणीय धातुओं के प्रभाव के फलस्वरूप धरती ठोस होने और ठोस बने रहने का कार्यकलाप होता है.  धरती के मध्य चुम्बकीय धार का प्रभाव उसकी घूर्णन गति से विखंडित होने से धरती की सतह पर विद्युत धारा दक्षिण से उत्तर की ओर दौड़ता है.  उसी आधार पर हमे कुतुबनुमा में चुम्बकीय-सुई उत्तर दिशा को दिखाती है.   

हम धरती पर विद्युत का जितना भी उत्पादन करते हैं, उसका स्त्रोत धरती की वस्तु ही है.  विद्युत जो प्रवाहित होता है, अंत में वह धरती में ही वापस जा कर समाता है.  प्रवाहित होने के क्रम में ध्वनि, ताप आदि में परिवर्तित होते हुए, यंत्रों को चलाता है.  

धरती अपनी घूर्णन गति के आधार पर अपना एक वातावरण बना कर रखा है.  प्रत्येक इकाई अपने वातावरण सहित अन्य इकाइयों से निश्चित दूरी को बना कर कार्य करती है.  इकाइत्व का पहचान उसी कारण हो पाता है.  जैसे सूर्य और धरती हैं.  सूर्य अपने वातावरण सहित है.  धरती अपने वातावरण सहित है.  इन दोनों के बीच में शून्य है.  धरती सूर्य के या सूर्य धरती के वातावरण की सीमा में नहीं हैं.  इनके बीच दूरी इनके वातावरण की सीमा से बहुत ज्यादा है.  धरती और सूर्य शून्य-आकर्षण में रहते हैं.  ये दोनों परस्पर एक व्यवस्था में हैं.  यह एक अद्भुत बात है.  परमाणु अंश मिल कर जो परमाणु की व्यवस्था बनाते हैं, उनमे भी वैसा ही है.  हर वस्तु में व्यवस्था को प्रमाणित करने की प्रवृत्ति है – यह इसका प्रमाण है.

प्रश्न: क्या धरती पर होने वाले परमाणुओं के प्रभाव-क्षेत्रों  के बीच भी बहुत दूरियां हैं?

उत्तर: नहीं. धरती पर होने वाले परमाणुओं के प्रभाव-क्षेत्र पास-पास हैं.  तभी उनमे ठोस होने की प्रवृत्ति है.  ठोस इसीलिये है क्योंकि परमाणुओं के प्रभाव क्षेत्र पास पास हैं.

प्रत्येक एक अपने वातावरण सहित सम्पूर्ण है.  वातावरण सहित सम्पूर्ण होने का मतलब है – निश्चित आचरण करना.  मूल वस्तु (सह-अस्तित्व) को परिशीलन करने पर मैंने पाया - सत्ता में संपृक्त होने से प्रत्येक एक “सम्पूर्णता” और “पूर्णता” से गर्भित है.  गठन-पूर्णता के पूर्व (जड़ प्रकृति) “सम्पूर्णता” को व्यक्त करते हैं.  गठन-पूर्णता के बाद (चैतन्य प्रकृति या जीवन) “पूर्णता” को व्यक्त करते हैं.  जड़-चैतन्य प्रकृति पूर्ण (सत्ता) में गर्भित होकर पूर्णता (गठन-पूर्णता, क्रिया-पूर्णता, आचरण-पूर्णता) के लिए काम कर रही है.  मनुष्येत्तर प्रकृति सम्पूर्णता के साथ “त्व सहित व्यवस्था” है.  मानव प्रकृति पूर्णता के साथ “त्व सहित व्यवस्था” है.  इसके आधार पर सारी बात व्यवस्था के लिए सूत्र-बद्ध हो जाती है.  सूत्र-बद्ध होने से अध्ययन के लिए सुगम हो जाता है.  इन चार-पांच मूल सूत्रों के आधार पर ही मैं अपनी सारी बात करता हूँ.  मानव यदि इसका अध्ययन कर पाता है तो उसमे स्वानुशासन स्वरूपी स्वयं स्फूर्त व्यवस्था की प्रवृत्ति उदय होगी.  स्वानुशासन स्वरूप ही स्वतंत्रता है.  बाकी सब आरोप है – या तो हम किसी पर प्रभाव डालने में व्यस्त रहते हैं या किसी से प्रभावित होने में व्यस्त रहते हैं.

अध्ययन के लिए प्रकृति के व्यवस्था में होने की मूल प्रवृत्ति के सत्य को “स्वीकारना” होगा.  फिर उसको सूक्ष्म से सूक्ष्म स्तर पर “जांचना” होगा.  उस जांच मे संतुष्टि होने की जगह मिलती है.  सबसे महत्त्वपूर्ण है – स्वयं में इसको जांचना.  स्वयं में जांचने का प्रवृत्ति आप में आ गया तो सब पकड़ में आ जाएगा.


-    - श्री ए. नागराज के साथ संवाद के आधार पर (दिसम्बर २००८).