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Monday, July 12, 2010

मानव की परिभाषा

मानव की परिभाषा है - मनाकार को साकार करने वाला, और मनः स्वस्थता को प्रमाणित करने वाला।

प्रश्न: "मनाकार को साकार करने" से क्या आशय है? क्या साकार करने में विचार और चित्रण शामिल नहीं हैं?
उत्तर: कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता के आधार पर मनाकार होता है। जिस डिजाईन को साकार करना है, उसको मन स्वीकार लेता है। आशा, विचार, इच्छा तीनो क्रियाओं के आधार पर डिजाईन तैयार होता है, उसको मन स्वीकार लेता है। फिर उसको सफल बनाने के लिए शरीर द्वारा प्रयत्न होता है। मन जब स्वीकार लेता है तब उसको करने में प्रवृत्त होता है। मन ही शरीर द्वारा क्रियान्वित करता है, इसलिए उसको "मनाकार को साकार करना" कहा है।

प्रश्न: "मनः स्वस्थता" से क्या आशय है? क्या पूरे जीवन का स्वस्थ होना आवश्यक नहीं है?

उत्तर: मनः-स्वस्थता = सर्वतोमुखी समाधान को प्रमाणित करना। पूरे जीवन में संगीत होने पर ही मनः स्वस्थता होती है। दूसरा कोई विधि नहीं है। आत्मा में अनुभव से ले कर मन तक सामरस्यता होने पर ही मनः स्वस्थता है। मनुष्य-परंपरा में प्रमाणित करना मन के द्वारा ही होता है, इसलिए इस स्थिति को मनः-स्वस्थता कहा है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित

अध्ययन के लिए उत्साह

मैंने जब अध्ययन किया तो मेरे पास अस्तित्व को पढने के लिए पहले से सूचना उपलब्ध नहीं था। जो मैंने समझा उसकी सूचना आपके अध्ययन के लिए मैंने प्रस्तुत किया है। मैंने बिना सूचना के ही जो अध्ययन कर लिया, उसको सूचना के साथ अध्ययन करके अनुभव करने में आपको क्या तकलीफ है?

प्रश्न: हम अभी अध्ययन-क्रम में हैं। जितना समझे हैं, उसको अनुकरण-अनुसरण पूर्वक जीने का प्रयास भी कर रहे हैं। फिर भी उत्साह कभी कभी ऊपर-नीचे होता रहता है। उत्साह को कैसे बनाए रखें?

उत्तर: अनुभव के लिए उत्साह को बनाए रखिये - सूचना के आधार पर। आगे चलकर इसको अनुभव करेंगे... इस तरह। सौ हथौड़े की चोटों के बाद एक विशाल पत्थर टूटता है। ९९ चोटें रही, तभी १००वी चोट पर पत्थर टूटता है। जितनी सीमा तक समझ को जी पाते हैं, उससे खुशी भी मिलती है - जिससे आगे के लिए उत्साह बना रहता है। प्रमाण अनुभव के बाद ही है।

विरक्ति विधि से मैंने साधना किया था। साधना-काल में हम हर समय खुश-हाली ही मनाते रहे। कभी अभावग्रस्त या पीड़ा-ग्रस्त नहीं हुए। जबकि साधना में हम सूखते ही रहे! आपके लिए अध्ययन का मार्ग कोई विरक्ति-विधि नहीं है। इसीलिये मैं मानता हूँ, सर्व-मानव के लिए सुलभ अध्ययन-विधि ही है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक)


Saturday, July 10, 2010

सर्व-शुभ का राज-मार्ग

प्रश्न: अस्तित्व का डिजाईन इतना दुरूह क्यों है? देखते ही समझ क्यों नहीं आ जाता?

उत्तर: देखने का मतलब है - समझना। नहीं समझा तो देखा भी नहीं है। अस्तित्व मनुष्य के लिए इन्द्रियगोचर और ज्ञान-गोचर है। इन्द्रिय-गोचर भाग भौतिक-रासायनिक संसार है। जीवन क्रियाकलाप ज्ञान-गोचर है। समाधान आँखों से नहीं दिखता, पर समाधान होता है। ज्ञान-गोचर भाग स्पष्ट नहीं होता, क्योंकि मनुष्य-परंपरा में जागृति प्रावधानित नहीं है। मनुष्य-परंपरा भ्रमित है, इसीलिये मनुष्य के लिए ज्ञान-गोचर भाग सुगम नहीं है। मनुष्य-परंपरा जीवन-बोध कराने योग्य नहीं रहा है, सह-अस्तित्व बोध कराने योग्य नहीं रहा है। और इन दोनों का बोध न होने के कारण मानवीयता-पूर्ण आचरण को बोध कराने योग्य नहीं रहा है। अस्तित्व सह-अस्तित्व स्वरूपी है। उसको समझना दुरूह नहीं है।

प्रश्न: मनुष्य जाति ने अपने इतिहास में इतना पसीना तो बहाया है, अस्तित्व को समझने के लिए। यदि अस्तित्व का डिजाईन सरल है, तो लोगों को जल्दी से, और सीधे-सीधे समझ आ जाना चाहिए था?

उत्तर: लोगों ने पसीना बहाया है, यह बात सही है। लेकिन अपनी condition के आधार पर पसीना बहाया है। उसी से वे असफल हुए। condition को छोड़ कर किसी ने पसीना नहीं बहाया। सारी असफलता वहीं से है।

प्रश्न: condition से आपका क्या आशय है?

उत्तर: condition का मतलब है - अपना अपना लक्ष्य। जिसने जिस बात को अपना लक्ष्य मान लिया, उसके लिए पसीना बहाया। "सार्वभौम लक्ष्य" के लिए पसीना नहीं बहाया। मनुष्य के "सार्वभौम लक्ष्य" के बारे में मध्यस्थ-दर्शन को छोड़ कर कहीं क्या आप पढ़े हो? सर्व-मानव का लक्ष्य एक होने के बारे में क्या कोई सोचा भी है? ऐसा "चाहने" की बात आपको मिल जायेगी, पर ऐसी "विचार-धारा" नहीं मिलेगी। जीने में प्रमाणित करने की बात आपको नहीं मिलेगी। उपनिषदों में "शुभ" चाहा गया है, साथ ही में उसी में लिखा है - "ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या"। जब जगत मिथ्या है, तो किसका शुभ?

प्रश्न: क्या आपके अनुसंधान में कोई condition नहीं था?

उत्तर: "सत्य से मिथ्या कैसे पैदा होता है?" - इस जिज्ञासा का उत्तर पाने के लिए मैं तुल गया। उसको आप condition नाम दो, या non-condition नाम दो। इस जिज्ञासा का कोई वेदज्ञ, कोई महात्मा, कोई ऋषि उत्तर नहीं दे पाया। तब मैंने अनुसन्धान किया, जिसमें मैं सफल हो गया। इस अनुसन्धान के सफल होने में किसका "दोष" माना जाए?

सफल होने का प्रभाव ही है कि लोगों को स्वीकार होता है - यह "ठीक बात" है। प्रभावित होने के बाद प्रमाणित होने के प्रयासों में कुछ लोग लगे हैं, कुछ लोग नहीं लगे हैं। जो नहीं लगे हैं, वे आगे चल कर लगेंगे। जो लोग लगे हैं, उनमें से कुछ पहले सफल होंगे, कुछ बाद में सफल होंगे। लगने वालों की संख्या बढ़ता जा रहा है। सफल होने वालों की संख्या भी बढ़ेगी। ऐसा मैं मान कर चल रहा हूँ। क्या इसमें कुछ गलत है?

मानव जाति के पास सार्वभौमता का कोई मार्ग नहीं था, वह बन गया है। मानव जाति चाहेगा तो उसका उपयोग करेगा, नहीं चाहेगा तो नहीं करेगा। हमारा किसी से कोई आग्रह नहीं है - आप यही करो! यह निर्देश अवश्य है - "यह राज-मार्ग है। सबके शुभ के लिए मार्ग यही है।" इतना तक घोषणा करेंगे, बाकी स्वेच्छा पर है।

प्रभाव प्रभावित करने से नहीं, प्रभाव को स्वीकार करने से है। मेरे ही परिवार में इतने पीढ़ियों से हर पीढी में सन्यासी होते रहे, पर उनको "ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या" परेशान नहीं किया - पर मुझे किया। ऐसा क्यों? मैंने स्वीकार किया, इसलिए इसको लेकर मैं प्रभावित हुआ। परेशान नहीं होता, तो अनुसंधान क्यों करता। अनुसंधान करने में मुझे कोई परेशानी नहीं हुआ, किसी भी बात से मैं घबराया नहीं। उसका श्रेय मैं अपने परिवार को देता हूँ। हम ढाई वर्ष तक पत्ते खा कर जिए, पर हमको लगा नहीं कुछ "कमी" है, क्योंकि विश्वास था - यदि जरूरत हुआ तो पुनः कुछ कर लेंगे। पूरा समझते आते तक मुझे परेशानी हुआ नहीं, अभाव हुआ नहीं, कुंठा हुआ नहीं, भय हुआ नहीं, न मैं प्रताड़ित हुआ। इसको परंपरा का देन कहा जाए, मानव का पुण्य कहा जाए, मेरा परिश्रम कहा जाए, मेरा अज्ञान कहा जाए - क्या कहा जाए?

इससे जो राज-मार्ग निकला है, वह सर्व-मानव के लिए उपयोगी है। अब इसमें कोई शंका नहीं है। सर्व-मानव तक इसको पहुंचाने की विधि पर हम तुले हैं। कुछ अभी कर रहे हैं, कुछ आगे करेंगे। आगे की पीढी और अच्छा करेगी।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक)

Tuesday, July 6, 2010

मध्यस्थ क्रिया

जड़-चैतन्य प्रकृति में पूर्णता की प्रेरणा मध्यस्थ-क्रिया के रूप में है। जड़-प्रकृति में भी मध्यस्थ-क्रिया है, चैतन्य-प्रकृति में भी मध्यस्थ-क्रिया है। जड़ प्रकृति में मध्यस्थ-क्रिया (मध्यांश) आश्रित अंशों को संतुलित रखता है। चैतन्य-प्रकृति (जीवन) में मध्यस्थ-क्रिया है - इसलिए स्वतंत्रता की सम्भावना है। ज्ञान पूर्वक, अर्थात सह-अस्तित्व में अनुभव पूर्वक, मनुष्य विषयों को, संवेदनाओं को, ईश्नाओं को नियंत्रित रखता है।

प्रश्न: जड़-चैतन्य प्रकृति में पूर्णता की प्रेरणा कैसे है?

उत्तर: पूर्णता की प्रेरणा व्यापक से ही है। मध्यस्थ-सत्ता में वस्तुओं को मध्यस्थ-क्रिया के लिए प्रेरणा मिलती है। प्रेरक वस्तु सत्ता है। जड़-चैतन्य वस्तु प्रेरणा पाता है। परमाणु व्यापक वस्तु की प्रेरणा से मध्यस्थ-क्रिया करता है। वैसे ही रसायन-संसार, वनस्पति-संसार, और जीव-संसार भी मध्यस्थ-क्रिया करता है। व्यापक-वस्तु के अनुसार प्रेरणा देने वाला जागृत-मानव ही है, दूसरा कुछ भी नहीं है।

प्रश्न: अनुभव के पहले जीवन में मध्यस्थ-क्रिया का क्या रोल है?

उत्तर: अनुभव के पहले जीवन में मध्यस्थ-क्रिया ज्ञानार्जन या अध्ययन के लिए प्रेरित करता है। ज्ञानार्जन या अध्ययन के लिए कल्पनाशीलता का प्रयोग आवश्यक है।

प्रश्न: जीवन-क्रिया में ज्ञान कैसे व्यक्त हो जाता है? जड़ क्रिया में ज्ञान व्यक्त क्यों नहीं होता है?

उत्तर: चैतन्य-परमाणु में घूर्णन और वर्तुलात्मक गति के योगफल में कम्पनात्मक गति मिलती है। जड़ परमाणु में घूर्णन और वर्तुलात्मक गति के योगफल जितनी कम्पनात्मक गति नहीं मिलती है। इसलिए जड़-प्रकृति में मात्रात्मक परिवर्तन के साथ गुणात्मक परिवर्तन होता है। जैसे - भौतिक-संसार का रसायन-संसार में परिवर्तित होना मात्रात्मक परिवर्तन के साथ गुणात्मक परिवर्तन है। चैतन्य-प्रकृति में केवल गुणात्मक परिवर्तन होता है।

जड-प्रकृति में जितनी कम्पनात्मक-गति है, उससे अधिक कम्पनात्मक-गति जीवन में है। जीवन में इतनी कम्पनात्मक-गति है कि वह ज्ञान-स्वरूप में व्यक्त होने योग्य है। जीवन-क्रिया में ज्ञान व्यक्त होना ही संचेतना है। जड़-क्रियाकलाप यांत्रिकता है। जीवन शरीर से जो क्रियाकलाप कराता है - वह यांत्रिकता है। जीवन में जड़-शरीर को संचालन करने के रूप में यांत्रिकता है। जीवन में ज्ञान संचेतना स्वरूप में व्यक्त होता है - दृष्टा-पद में। संचेतना यांत्रिकता का दृष्टा है। दृष्टा-पद द्वारा जीने में फल-परिणाम निकालने के लिए यांत्रिकता है। जीवन में संचेतना और यांत्रिकता अविभाज्य हैं। संचेतना की संतुष्टि के लिए यांत्रिकता है।

प्रश्न: जीवन में कम्पनात्मक, वर्तुलात्मक, और घूर्णन गति साथ-साथ हैं - फिर आप यह कैसे कहते हैं कि कम्पनात्मक-गति ही संचेतना का कारण है?

उत्तर: यही तो अनुभव है। अनुभव पूर्वक ही ऐसा कहा जा सकता है। केवल तर्क से ऐसा नहीं कहा जा सकता।

प्रश्न: आदर्शवाद में भी तो "अनुभव" की बात की गयी है...

उत्तर: आदर्शवाद में कहा है - "रहस्य को अनुभव करो।" आदर्शवाद रहस्य से शुरू होता है, और रहस्य में ही अंत होता है। आदर्शवाद में कहा है - "अनुभव को बताया नहीं जा सकता। सत्य अव्यक्त है, अनिर्वचनीय है।" यहाँ कह रहे हैं - वस्तु को अनुभव करो। सह-अस्तित्व में अनुभव करो। सह-अस्तित्व रहस्य नहीं है। सह-अस्तित्व हम सभी के सामने व्यक्त है, प्रत्यक्ष रूप में है। इस मार्ग में पहले सह-अस्तित्व स्पष्ट होता है, फिर उसके बाद अनुभव होता है। अनुभव को बताया जा सकता है।

प्रश्न: सत्यता (सह-अस्तित्व) को समझने का मनुष्य के जीने (यथार्थता) से क्या सम्बन्ध है?

उत्तर: सत्यता समझ आने के बाद, अर्थात अनुभव होने के बाद, यथार्थता का अनुमान होता ही है। सत्ता में सम्पृक्तता समझ आने के बाद उसका प्रगटन कैसे किया जाए, अर्थात उसको जिया कैसे जाए - स्वाभाविक रूप में समझ आता है। यह अनुमान कल्पनाशीलता पूर्वक ही होता है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक)

Monday, July 5, 2010

स्व-निरीक्षण

स्व-निरीक्षण विधि से ही हम निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं, दूसरे किसी विधि से नहीं। कितना भी प्रयत्न करो, दूसरे विधि से निकलेगा नहीं! स्व-निरीक्षण की ओर ध्यान नहीं जाना ही भूल है। चार विषय, और पांच संवेदनाएं शरीर-सापेक्ष हैं। जीवन के लिए शरीर "पर" (पराया) है। शरीर-मूलक सोच पर-सापेक्ष है, स्व-सापेक्ष नहीं है। स्व-निरीक्षण से पता चलता है - ज्ञान जीवन का है। ज्ञान के किसी न किसी स्तर को प्रमाणित करता हुआ ही मनुष्य मिलेगा। ज्ञान न हो, ऐसा कोई जीवित आदमी आपको मिलेगा नहीं। जीवन-ज्ञान होना बहुत आवश्यक है। सह-अस्तित्व ज्ञान हुए बिना जीवन-ज्ञान होता नहीं है। अभी तक तो हुआ नहीं है! सारे लोगों ने बहुत सर कूट लिया, साधना कर लिया, यज्ञ कर लिया, तप कर लिया, योग कर लिया... मनुष्य ने क्या नहीं किया? पर उस सबसे जीवन-ज्ञान नहीं हुआ।

चारों अवस्थाओं के साथ सत्तामयता को संयुक्त रूप में अनुभव किये बिना जीवन-ज्ञान हो ही नहीं सकता। जीवन-ज्ञान होने से पहले मानव-चेतना का शुरुआत ही नहीं होगा।

स्व-निरीक्षण विधि से सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान तक पहुँचते हैं। सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान होने के बाद स्व-स्वरूप ज्ञान होता है। स्व-स्वरूप ज्ञान ही जीवन-ज्ञान है। फल-स्वरूप ऊर्जा-सम्पन्नता का ज्ञान होता है। जड़-प्रकृति में ऊर्जा-सम्पन्नता है, चैतन्य-प्रकृति में ज्ञान-सम्पन्नता है - यह ज्ञान होता है। यह दोनों स्पष्ट होता है, तो उसके अनुरूप जीने के लिए तत्परता होती है, तो मानवीयता पूर्ण आचरण की शुरुआत हो गयी। व्यवस्था में जीना शुरू हो गया।

स्व-निरीक्षण पूर्वक जीवन दृष्टा-पद प्रतिष्ठा को पाता है। दृष्टा-पद प्रतिष्ठा में पहुँचते हैं तो स्व-निरीक्षण हुआ। दृष्टा-पद प्रतिष्ठा में नहीं पहुंचे तो स्व-निरीक्षण नहीं हुआ। दृष्टा-पद प्रतिष्ठा स्व-निरीक्षण का प्रमाण है। दृष्टा-पद प्रतिष्ठा पूर्वक सह-अस्तित्व समझ में आता है। चारों अवस्थाओं के साथ मानव का होना समझ में आता है। मानव का शरीर और जीवन के संयुक्त रूप में होना समझ में आता है। शरीर का महत्त्व और जीवन का महत्त्व समझ में आता है। शरीर का महत्त्व मनुष्य-परंपरा के रूप में है। जीवन का महत्त्व शाश्वत रूप में है। इसी आधार पर प्रतिपादित किया है - "ब्रह्म सत्य, जगत शाश्वत"।

प्रश्न: स्व-निरीक्षण की प्रक्रिया क्या होगी?

उत्तर: हम क्या कर रहे हैं? हम क्या सोच रहे हैं? - यही स्व-निरीक्षण है। यह बिलकुल सहज है। मैं क्या करता हूँ, और क्या सोचता हूँ - इसको मिलाओ। यदि "करने" और "सोचने" में मेल नहीं बैठता तो वह "होने" से जुड़ता नहीं है। कर्म करते समय कुछ और हो, फल भोगते समय और कुछ हो - तो तृप्ति कहाँ मिली? मानवीयता पूर्वक मनुष्य कर्म करते समय भी स्वतन्त्र है, और फल भोगते समय भी स्वतन्त्र है।

स्व-निरीक्षण लक्ष्य-सम्मत होना प्रधान बात है। किस लक्ष्य से स्व-निरीक्षण कर रहे हैं - यह मूल मुद्दा है। मानव-लक्ष्य (समाधान-समृद्धि) के अर्थ में स्व-निरीक्षण करते हैं तो पकड़ में आता है, नहीं तो पकड़ में नहीं आता। लक्ष्य को पकड़ लेने पर सारे फिसलने के रास्ते हट जाते हैं। जागृति के लिए राज-मार्ग शुरू हो जाता है। भ्रमित अवस्था में भी मनुष्य जिस सुविधा-संग्रह लक्ष्य को स्वीकारा रहता है, उसको वह सही माने या गलत - उसके सारे प्रयास उसी के लिए रहते हैं। उसी तरह समाधान-समृद्धि लक्ष्य को स्वीकारने पर सारे प्रयास उसी के लिए हो जाते हैं। इस बात को हम सभी शोध कर सकते हैं।

दर्शन में इस बात को स्पष्ट किया है, सूचना दिया है - जीव-चेतना से मानव-चेतना श्रेष्ठ है। मानव-चेतना से देव-चेतना श्रेष्ठतर है। देव-चेतना से दिव्य-चेतना श्रेष्ठतम है। मनुष्य में श्रेष्ठता के लिए अरमान है ही! इसीलिये मानव-चेतना सम्मत लक्ष्य (समाधान-समृद्धि) सबको स्वीकार होता है।

भौतिकवाद में स्व-निरीक्षण की बात नहीं है। स्व-निरीक्षण की परिकल्पना आदर्शवाद में की गयी है। "स्व-निरीक्षण होना चाहिए" - ऐसी आशा व्यक्त की गयी है। स्व-निरीक्षण किस लक्ष्य के लिए किया जाए - यह आदर्शवाद में स्पष्ट नहीं हुआ। मानव-लक्ष्य का ही वहां पता नहीं चला।

यहाँ मानव-लक्ष्य (समाधान - समृद्धि) के लिए स्व-निरीक्षण करने का संदेश है।

- बाबा श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक)

अभिव्यक्ति, सम्प्रेष्णा, प्रकाशन

ज्ञान

मानव में ऊर्जा-सम्पन्नता ज्ञान के रूप में है। भ्रमित रहते तक ऊर्जा का प्रयोग मनुष्य चार विषयों और पांच संवेदनाओं के रूप में करता है। जागृत होने पर ऊर्जा का प्रयोग मनुष्य तीन ईश्नाओं और उपकार में करता है।

प्रश्न: चार विषयों के लिए क्या "ज्ञान" शब्द का प्रयोग उचित है?

उत्तर: ज्ञान के बिना प्रवृत्ति नहीं है। विषयों के ज्ञान से ही विषयों में प्रवृत्ति है। उसी तरह संवेदनाओं के ज्ञान से संवेदनाओं में प्रवृत्ति है। ईश्नाओं के ज्ञान से ईश्नाओं में प्रवृत्ति है। उपकार के ज्ञान से उपकार में प्रवृत्ति है। ज्ञान के चार स्तर हैं। जिस स्तर के ज्ञान को अपनाते हैं, उसी की व्याख्या अपने जीने में करने लगते हैं। विषयों में प्रवृत्ति और संवेदनाओं में प्रवृत्ति जीव-चेतना की सीमा है। ईश्नाओं में प्रवृत्ति और उपकार में प्रवृत्ति से मानव-चेतना की शुरुआत है।

पांच संवेदनाएं और चार विषय - यह जीव-चेतना की सीमा है। तीन ईश्नाओं पूर्वक जीने से मानव-चेतना की शुरुआत है। इसमें संवेदनाएं नियंत्रित रहती हैं। जीव-चेतना में संवेदनाएं नियंत्रित नहीं रहती हैं। इतना ही अंतर है। मानव चेतना से उपकार की शुरुआत है।

मानव चेतना सहज ज्ञान को मध्यस्थ-दर्शन में प्रतिपादित किया गया है। जिससे सह-अस्तित्व स्वरूपी अस्तित्व दर्शन ज्ञान, जीवन ज्ञान, और मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान में पारंगत होना और प्रमाणित होना संभव है। जिससे ज्ञान सम्मत विवेक और विवेक सम्मत विज्ञान पूर्वक जीना होता है।

व्यापक वस्तु के प्रतिरूप का नाम है - "ज्ञान"। मानव में ऊर्जा-सम्पन्नता ज्ञान के रूप में है। व्यापक वस्तु ही मानव द्वारा "ज्ञान" के नाम से प्रकाशित होता है। व्यापक वस्तु को जो हम अभिव्यक्त कर सकते हैं, संप्रेषित कर सकते हैं, आचरण में ला सकते हैं - उसका नाम है "ज्ञान"। ज्ञान के चार स्तर बताये हैं - जीव-चेतना, मानव-चेतना, देव-चेतना, और दिव्य-चेतना। जीव-चेतना से मानव-चेतना श्रेष्ठ है। मानव-चेतना से देव-चेतना श्रेष्ठतर है। देव-चेतना से दिव्य-चेतना श्रेष्ठतर है। जिस स्तर पर आप जीना चाहें - जियें! हमारा कोई आग्रह नहीं है - आप ऐसे ही जियें।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक)

सम्पूर्णता और पूर्णता

पूर्ण में समाहित रहने के कारण प्रकृति में पूर्णता की तृषा है। सत्ता को पूर्ण कहा है। पूर्ण से आशय है - न घटना, न बढ़ना। पूर्ण में समाहित होने से प्रकृति में परिवर्तनहीन होने ( पूर्णता ) और व्यवस्था में होने (सम्पूर्णता) की प्रवृत्ति है। व्यवस्था (परंपरा के स्वरूप में रहना) भी निरंतरता के अर्थ में है।

सम्पूर्णता के लिए प्रवृत्ति जड़-प्रकृति में है। पूर्णता के लिए प्रवृत्ति जीवन (चैतन्य प्रकृति) में है।

पूर्णता का स्वरूप है - गठन-पूर्णता, क्रिया-पूर्णता, आचरण-पूर्णता। पूर्णता का मतलब - "ज्यादा-कम से मुक्त"।

गठन-पूर्णता = निश्चित गठन = जो परमाणु-अंशों के घटने-बढ़ने या ज्यादा-कम होने से मुक्त है।
क्रिया-पूर्णता और आचरण-पूर्णता में - समाधान न ज्यादा है, न कम है। समृद्धि न ज्यादा है, न कम है। अभय (विश्वास) न ज्यादा है, न कम है। सह-अस्तित्व (सत्य) न ज्यादा है, न कम है।

क्रिया-पूर्णता और आचरण-पूर्णता जो शेष है - उसके लिए मध्यस्थ-दर्शन के अध्ययन का प्रस्ताव है। हम सत्ता में भीगे हैं, उसके प्रति जागृत होना, उसका दृष्टा होना, उसको प्रमाणित करना अभी शेष है। जीवन ही है जो स्वयं को पहचानता है, और सर्वस्व को पहचानता है। अभी भ्रमित-स्थिति में जीवन स्वयं को शरीर स्वरूप में पहचाना हुआ है - जिसको "जीव-चेतना" कहा है। स्वयं को पहचानना, और सर्वस्व को पहचानना ही तो कुल मिला करके अध्ययन है, जिसके फलस्वरूप व्यवस्था को पहचानना और निर्वाह करना बनता है।

स्थिति-पूर्ण सत्ता में स्थिति-शील प्रकृति संपृक्त होने के कारण हरेक वस्तु स्वयं में व्यवस्था है, और समग्र व्यवस्था में भागीदारी करती है। मानव में भी यह होने के लिए अध्ययन है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक)

नियंत्रण

व्यापक में प्रकृति डूबा हुआ, भीगा हुआ, और घिरा हुआ है। भीगा हुआ से ऊर्जा-सम्पन्नता है। डूबा हुआ से क्रियाशीलता है। घिरा हुआ से नियंत्रण है। भीगा हुआ के साथ डूबा हुआ और घिरा हुआ बना ही है।

प्रश्न: व्यापक से इकाई घिरे होने से वह नियंत्रित कैसे है?

उत्तर: घिरा होना ही नियंत्रण है। व्यापक से इकाई घिरा न हो तो उसका इकाइत्व कैसे पहचान में आएगा? नियंत्रण का मतलब है - निश्चित आचरण की निरंतरता।

प्रश्न: जड़ प्रकृति में नियंत्रण कैसे है?

उत्तर: हर जड़-इकाई व्यापक वस्तु से घिरी है, इसलिए नियंत्रित है। जड़ वस्तु में अनियंत्रित करने वाली कोई बात नहीं है।

प्रश्न: मनुष्य भी तो व्यापक में घिरा है, फिर वह नियंत्रित क्यों नहीं है?

उत्तर: मनुष्य नियंत्रण चाहता है। पर अपनी मनमानी के अनुसार नियंत्रण चाहता है, उसमें वह असफल हो गया है। पूरा मानव-जाति इसमें असफल हो गया है। असफल होने के बाद हम पुनर्विचार कर रहे हैं।

अनियंत्रित होने के लिए मनुष्य ने प्रयत्न किया, पर हो नहीं पाया। इसके आधार पर पता चलता है, नियंत्रित रहना जरूरी है। मनुष्य के लिए क्या नियंत्रित रहना जरूरी है? इसका शोध करने पर पता चलता है - संवेदनाएं नियंत्रित रहना जरूरी है। संवेदनाएं नियंत्रित कैसे रहेंगी? - इसका शोध करते हैं तो पता लगता है - समझ पूर्वक संवेदनाएं नियंत्रित रहेंगी। सत्ता में हम घिरे हैं - यह समझ में आने पर संवेदनाएं नियंत्रित रहती हैं। सत्ता के बिना चेतना नहीं है। चेतना के बिना मानव-चेतना नहीं है। मानव-चेतना के बिना संवेदनाएं नियंत्रित नहीं हैं।

प्रश्न: मनुष्य भी तो व्यापक में सदा डूबा-भीगा-घिरा रहता है, फिर अध्ययन-पूर्वक अनुभव के बाद उसमें तात्विक रूप में ऐसा क्या हो जाता है कि वह निश्चित-आचरण को प्रमाणित करने लगता है?

उत्तर: अध्ययन पूर्वक अनुभव करने से जीवन की प्रवृत्ति बदल जाती है। मनुष्य में तात्विकता उसकी प्रवृत्ति भी है। प्रवृत्ति बदलती है तो आचरण परिवर्तित हो जाता है। कल्पनाशीलता प्रवृत्ति के रूप में है। कल्पनाशीलता का तृप्ति-बिंदु ज्ञानशीलता या समझ है। ज्ञान-पूर्वक संवेदनाएं नियंत्रित हो जाती हैं। संवेदनाएं नियंत्रित होने पर मनुष्य द्वारा निश्चित आचरण पूर्वक समग्र व्यवस्था में भागीदारी करना बनता है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक)

Sunday, July 4, 2010

अपेक्षा, आवश्यकता, सम्भावना

अनुमान, अनुक्रम, अनुभव

अनुमान से अनुभव तक पहुँचते हैं। अनुभव होता है, तो अनुमान सही है। अनुभव नहीं होता, तो अनुमान सही नहीं है। अनुमान करने की ताकत कल्पनाशीलता के स्वरूप में हर व्यक्ति के पास है। उसके सहारे अनुभव तक पहुँच सकते हैं। जीने में जो प्रमाणित हो सके, वह अनुमान सही है। जीना प्रमाण ही होता है, अनुमान नहीं होता। जीने के अलावा और किसी चीज को प्रमाण कैसे माना जाए? "मैं प्रमाणित स्वरूप में जी रहा हूँ" - इस जगह आपको आना है।

अनुक्रम से अनुभव होता है। जो कुछ भी होना हुआ है, और जो कुछ भी होना है - वह अनुक्रम है। अनुक्रम का अर्थ है - एक से एक जुडी हुई श्रंखला विधि। इस विधि को पूरा समझने से अनुमान होता है। अनुमान होने के बाद अनुभव होता है। अनुभव होने के बाद प्रयोजन सिद्ध होता है, प्रमाण होता है। मानव के सुधरने के लिए, सुसज्जित होने के लिए यही विधि है।

अध्ययन में यदि मन लगता है तो अनुभव हो जाएगा।
अध्ययन में मन नहीं लगता है तो अनुभव नहीं होगा।

अनुभव के पहले प्रमाण नहीं है। अनुभव के पहले अनुकरण-अनुसरण विधि से "अच्छा लगने" की स्थिति में आ जाते हैं, "अच्छा होना" नहीं होता। केवल अनुसरण-अनुकरण पर्याप्त नहीं है। जीने में प्रमाणित होने पर ही "अच्छा होना" होता है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक)

कैसे सुने, कि समझ आये?