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Tuesday, April 27, 2010

होना, सम्पूर्णता, और पूर्णता

सापेक्षता में छोटा-बड़ा बना रहता है - सम्पूर्णता ओझिल हो जाती है। सापेक्षवाद के विकल्प में मध्यस्थ-दर्शन में प्रस्तावित है : -

(१) होना
(२) सम्पूर्णता के साथ होना
(३) पूर्णता के साथ होना

"होने" के स्वरूप में जड़-चैतन्य प्रकृति है। "होना" = अस्तित्व = सत्ता में संपृक्त जड़-चैतन्य प्रकृति

"होने" का अध्ययन है। प्रवृत्ति "होने" के अनुसार है। "होने" में "सम्पूर्णता" की प्रवृत्ति है, और "पूर्णता" की प्रवृत्ति है। प्रवृत्ति इतना ही है।

चारों अवस्थाओं का "सम्पूर्णता" के साथ होना समझ में आता है। प्रत्येक एक अपने वातावरण सहित सम्पूर्ण है। इकाई + वातावरण = सम्पूर्ण। हर वस्तु स्वयं से अपने वातावरण को निष्पन्न करता ही है। जैसे - इस धरती का एक वातावरण है। एक परमाणु का भी एक वातावरण है। सभी वस्तुएं अपने वातावरण को निष्पन्न करती हैं। इसलिए हरेक वस्तु के वातावरण में अनेक वस्तुएं आती हैं।

हर वस्तु अपने वातावरण सहित सम्पूर्णता सहज वैभव होता है। वैभव होने से पूरकता-उपयोगिता सिद्ध होती है।

यह मूल मन्त्र है। यह मूल बात समझ में आने पर छोटे-बड़े या सापेक्षता का कोई मतलब ही नहीं निकलता। जैसे - एक छोटा पत्थर, एक बड़ा पत्थर। छोटे पत्थर की अपनी उपयोगिता है। बड़े पत्थर की अपनी उपयोगिता है। उपयोगिता के आधार पर इनकी पहचान करनी है, या इनके आकार के आधार पर? प्रत्येक रासायनिक-भौतिक वस्तुएं अपनी सम्पूर्णता में काम करते हैं - अपनी उपयोगिता/पूरकता को प्रमाणित करते हैं।


तीसरे - "पूर्णता" के साथ होना। गठन-पूर्णता, क्रिया-पूर्णता, आचरण-पूर्णता। तीन पूर्णता की स्थितियां बनती हैं। पहले गठन में पूर्णता, फिर क्रिया में पूर्णता, फिर आचरण में पूर्णता। यह जीवन में होना देखा गया।

जड़ प्रकृति के साथ सम्पूर्णता की बात है। चैतन्य-प्रकृति (जीवन) के साथ पूर्णता-त्रय की बात है। जड़ ही विकसित हो कर चैतन्य बना है। यही परमाणु में विकास है। परमाण्विक-स्तर पर पूर्णता की बात है। जीवन स्वरूप में गठन-पूर्णता है, जीवन-जागृति स्वरूप में क्रिया-पूर्णता, और आचरण-पूर्णता है। जीवन वंशानुशंगियता को जीवावस्था में प्रमाणित करता है। भौतिक रासायनिक संसार जीव-शरीर और मनुष्य-शरीर के रूप में है। इस तरह भौतिक-रासायनिक संसार गठन-पूर्णता का प्रमाण प्रस्तुत कर रहा है। मनुष्य में ही गुणात्मक-परिवर्तन पूर्वक क्रिया-पूर्णता और आचरण-पूर्णता को प्रमाणित करने का अवसर है। यह अवसर कल्पनाशीलता और कर्मस्वतंत्रता के रूप में है। जीवन ही ज्ञान, विवेक, विज्ञान को ज्ञान-अवस्था में प्रमाणित करता है।

सह-अस्तित्व नित्य प्रभावी है। एक दूसरे की उपयोगिता-पूरकता साथ में जीने, और साथ-साथ होने के स्वरूप में है। इतना बड़ा यह धरती, धरती पर ही वनस्पति, धरती पर ही जीव-संसार, धरती पर ही मनुष्य। यदि बड़े द्वारा छोटे को खाने वाली बात होती तो इतना सब प्रकटन होना ही नहीं चाहिए था। मनुष्य का ही अकल बिगड़ा है - बाकी सब अपने नियम से काम कर रहे हैं। हर वस्तु में "स्वभाव गति" नाम की चीज होता है। एक परमाणु में भी, मानव में भी। स्वभाव-गति विधि से हम समाधानित रहते हैं। पूर्णता में समाधान समाया रहता है। मनुष्य समाधान स्वरूप में अपनी स्वभाव-गति को प्रमाणित करता है। स्वभाव-गति प्रतिष्ठा हर जड़-चैतन्य वस्तु का स्वत्व है। उसमें से मानव अपनी स्वभाव-गति को पहचानने में पीछे रहा है। स्वभाव-गति को पहचानने पर विज्ञान में जिसको ज्ञान मानते रहे, उसकी निरर्थकता स्पष्ट हो जाती है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २००६, अमरकंटक)

Monday, April 26, 2010

पुनर्विचार की आवश्यकता

मानव जाति ने व्यापार और नौकरी में विश्वास को ढूँढने का प्रयास किया - जबकि व्यापार और नौकरी जिम्मेदारी लेने से मुकरा हुआ है। नौकरी भी व्यापार के लिए ही है। व्यापार और नौकरी द्वारा सुविधा-संग्रह की तलाश है। इससे पहले मानव-जाति में कुछ लोग भक्ति-विरक्ति की तलाश में थे, और उनका सम्मान करते हुए बाकी लोग थे। अब भक्ति-विरक्ति छूट गया - और अब सभी के सभी सुविधा-संग्रह के दरवाजे पर खड़े हैं। नौकरी और व्यापार में विश्वास को ढूँढने का प्रयास कर रहे हैं। इन प्रयासों के चलते ही धरती बीमार हो गयी, प्रदूषण छा गया। अब पुनर्विचार की आवश्यकता है।

पुनर्विचार का मूल आधार बना - धरती का बीमार होना। इस धरती पर इतने समुदाय हैं, और किसी भी समुदाय के पास सर्व-शुभ के लिए सूत्र-व्याख्या नहीं है। सबके लिए शुभ जिससे हो ऐसी सूत्र-व्याख्या चाहिए या नहीं चाहिए? - इस संवाद के उत्तर में सबका यही उत्तर आता है - चाहिए! इस धरती पर रहने के लिए धरती को स्वस्थ रखना है, या नहीं रखना है? - इसका उत्तर भी सबका यही आता है - रखना है! सर्व-मानव के साथ जुड़ा यह प्रश्नोत्तर है। सर्व-मानव के लिए "आगे की सोच" के लिए विकल्प की आवश्यकता है।

पुनर्विचार के लिए मूल मुद्दा है - सर्व-शुभ के सूत्र को पहचानना। दूसरे - अपराध-मुक्ति के सूत्र को पहचानना।

सर्व-शुभ के मूल में ज्ञान-विवेक-विज्ञानं को तय करने की आवश्यकता है। इसका शिक्षा-विधा में, विचार-विधा में, व्यव्हार-विधा में, और व्यवस्था-विधा में क्या स्वरूप होगा - इसको समझने के बाद उसको संप्रेषित करने की आवश्यकता है। इतना सब यदि हम कर पाते हैं, और उसको संप्रेषित कर पाते हैं - तभी वह विकल्प होगा!

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २००६, अमरकंटक)

Saturday, April 24, 2010

प्रयोजन की पहचान

प्रश्न: मध्यस्थ-दर्शन के आने से पहले भी मनुष्य के प्रयोजन की बात की गयी है। आप "मानव सहज प्रयोजन" की जो बात करते हैं, वह उससे कैसे भिन्न है?

उत्तर: पहले भक्ति-विरक्ति एक विचार का आधार हुआ। इसमें संलग्न साधकों का सम्मान हुआ, लेकिन उनकी साधना से जो "फल" मिलना चाहिए था - वह मिला नहीं! उसका लोकव्यापीकरण हुआ नहीं! भक्ति-विरक्ति का प्रतिपादन शब्द-भाषा के रूप में रखा हुआ है। उसको आप भी पढ़ सकते हैं। उसको लेकर साधकों ने जो साधना किया उसका फल उनको मिला या नहीं यह भी पता नहीं लगा, परंपरा में उसके पहुँचने की कोई गवाही भी नहीं मिली। उस प्रतिपादन में भक्ति-विरक्ति करने को ही प्रयोजन माना है। जबकि यहाँ हम कह रहे हैं - भक्ति-विरक्ति से जो "फल" पाना है वह प्रयोजन है। वह फल भक्ति-विरक्ति से नहीं मिला। इसीलिये मैं कहता हूँ - भक्ति-विरक्ति से प्रयोजन को पाना शेष रहा।

इसके विपरीत भौतिकवादियों ने सुविधा-संग्रह को मनुष्य का प्रयोजन मान लिया। सुविधा-संग्रह का तृप्ति-बिंदु मिला नहीं - इसीलिये प्रयोजन के लिए पुनर्विचार की ज़रुरत आ गयी।

अनुभव-मूलक विधि से मनुष्य अस्तित्व में अपने प्रयोजन को प्रमाणित करता है। अनुभव संपन्न होने के लिए मध्यस्थ-दर्शन का अध्ययन के लिए प्रस्ताव है। इसकी आवश्यकता है या नहीं - इसके बारे में आप सोचिये!

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (मार्च २००८, अमरकंटक)

Sunday, April 4, 2010

सह-अस्तित्व में बोध

भ्रम के सम्मुख जब जागृति प्रस्तुत होता है तो भ्रम की अनावश्यकता स्वीकार हो जाती है। यह जीवन में जागृति की ओर विवश करने वाली गति है।

जीवन स्वयं को भी जानने वाला है, और सर्वस्व को भी जानने वाला है। सर्वस्व को जानने पर "दृष्टा पद" और उसको जीने में प्रमाणित करने को "जागृति" कहा है।

सह-अस्तित्व ही बोध का सम्पूर्ण वस्तु है। सह-अस्तित्व में ही जीवन है। सह-अस्तित्व में ही जीवन-ज्ञान होता है। सह-अस्तित्व में ही मानव है। सह-अस्तित्व में ही मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान होता है। सह-अस्तित्व "में" ही अध्ययन है। सह-अस्तित्व से विभाजित करके कोई अध्ययन पूरा होता नहीं है।

प्रमाणित व्यक्ति के "अनुभव की रोशनी" में ही अध्ययन होता है। प्रमाण के आधार पर दूसरों में अनुभव की आवश्यकता का पता चलना - यह सर्वशुभ सम्मत प्रयोजन है। अनुभव किया हुआ व्यक्ति ही अनुभव-गामी पद्दति से अध्ययन करा सकता है। मेरे अनुभव के साक्षी में आप अध्ययन करते हो। अनुभव के बाद आप स्वयं साक्षी (दृष्टा) हो जाते हो। अनुभव के साक्षी में ही अध्ययन पूर्ण होता है।

अध्ययन विधि से सह-अस्तित्व स्वरूपी सत्य बोध होता है, फलतः अनुभव होता है। जानने-मानने की संतुलन-स्थिति का नाम है - बोध। अध्ययन विधि से बोध होता है - वह अनुभव-मूलक विधि से प्रमाण स्वरूप में आता है। प्रमाण से तृप्ति मिलती है। अनुभव-प्रमाण "बीज-स्वरूप" में हो जाता है, जिसको फिर "बोया" जा सकता है। अनुभव एक से अनेक में अंतरित हो सकता है। यह सर्व-शुभ है। सर्व-शुभ में स्व-शुभ समाया रहता है। प्रमाणित होने की ताकत स्वयं में बने रहने से स्वयं की तृप्ति बनी रहती है। यह तृप्ति जब चित्त के स्तर पर आती है - तब "समाधान" कहलाती है। अनुभव मूलक विधि से जीने पर ही समाधान होता है। जीव-चेतना विधि से जीने पर जीने में समाधान बनता नहीं है।

तदाकार विधि से चित्त बुद्धि में अनुभूत होता है - तद्रूप अवस्था में। जब चित्त बुद्धि के आकार में हो जाता है तो बुद्धि में बोध चित्त में चिंतन स्वरूप में आता है। उसी के अनुरूप प्रमाणित होने के लिए चित्रण होना शुरू करता है। रूप और गुण का ही चित्रण होता है, स्व-भाव और धर्म समझा रहता है। इस प्रकार चिंतन-चित्रण के अनुरूप वृत्ति में तुलन-विश्लेषण, और मन में चयन-आस्वादन होता है। मन वृत्ति में अनुभूत होता है - मतलब अनुभव मूलक वृत्ति के स्वरूप में मन हो जाता है। इसी प्रकार वृत्ति चित्त में, चित्त बुद्धि में और बुद्धि आत्मा में अनुभूत होता है। आत्मा सह-अस्तित्व में अनुभूत होता है। पूरा जीवन अनुभव के आकार में हो जाता है। आत्मा में सह-अस्तित्व का जानना-मानना "सुनिश्चित" बना रहता है, जो मन द्वारा जीने में क्रियान्वित होता रहता है। इसको "जागृति" नाम दिया।

मूल्यांकन क्रम में - आत्मा बुद्धि का, बुद्धि चित्त का, चित्त वृत्ति का, और वृत्ति मन का मूल्यांकन करता है। मन शरीर और व्यवहार का मूल्यांकन करता है। अनुभव संपन्न होने के बाद -"आत्मा जानता-मानता है" - इसकी गवाही पहले बुद्धि में ही होती है। अनुभव का प्रभाव पहले बुद्धि पर ही आता है। बुद्धि इस अनुभव-प्रमाण बोध को प्रमाणित किया या नहीं - यह आत्मा में ही मूल्यांकित होता है। अनुभव-संपन्न आत्मा यह मूल्यांकित करती है कि अनुभवप्रमाण बोध को बुद्धि सदुपयोग किया या नहीं? बुद्धि का दृष्टा आत्मा है। इसी तरह अनुभव-मूलक विधि से चित्त का दृष्टा बुद्धि, वृत्ति का दृष्टा चित्त, मन का दृष्टा वृत्ति, शरीर और व्यवहार का दृष्टा मन होता है।

पदार्थ ही जीवन स्वरूप में है। परमाणु ही विकसित हो कर, गठन-पूर्ण हो कर जीवन पद प्रतिष्ठा में आता है। वही जीवन जागृत हो कर प्रमाणित होता है। यही "समाधानात्मक भौतिकवाद" का मूल आधार है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००८, अमरकंटक)

Thursday, April 1, 2010

बुद्धि और आत्मा

प्रश्न: भ्रमित-अवस्था में बुद्धि और आत्मा का कार्य-रूप क्या है?

उत्तर: बुद्धि और आत्मा जीवन में अविभाज्य है। भ्रमित-अवस्था में भ्रमित-चित्रणों को बुद्धि अस्वीकारता है और वह चित्रण तक ही रह जाता है, बोध तक नहीं जाता। इसी से भ्रमित-मनुष्य को "गलती" हो गयी - यह पता चलता है। बुद्धि और आत्मा ऐसे भ्रमित-चित्रणों के प्रति तटस्थ बना रहता है - इसके प्रभाव-स्वरूप में कल्पनाशीलता में "अच्छाई की चाहत" बन जाती है। यही भ्रमित-मानव में शुभ-कामना का आधार है। भ्रमित-अवस्था में बुद्धि और आत्मा में "सही" के लिए वस्तु नहीं रहती, पर गलती के लिए अस्वीकृति रहती है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित


अध्ययन

मध्यस्थ क्रिया

प्रकृति की किसी भी वस्तु के "बनने" की कुछ प्रक्रिया होती है - उसको कहा "सम" या "उद्भव"। उसके "बिगड़ने" की भी कुछ प्रक्रिया होती है - उसको कहा "विषम" या "प्रलय"। वस्तु के "बने रहने" की सम-विषम से मुक्त जो प्रक्रिया होती है - उसको कहा "मध्यस्थ" या "विभव"।

प्रकृति की हर अवस्था के "बने रहने" या "मध्यस्थता" का एक स्वरूप होता है - जिससे उस अवस्था की परंपरा बनी रहती है। जैसे - पदार्थ-अवस्था परिणाम-अनुषंगी विधि से परंपरा है। पदार्थ के "बनने" या गठन होने की प्रक्रिया होती है, "बिगड़ने" या विघटन होने की भी प्रक्रिया होती है। पदार्थ के "बने रहने" या "मध्यस्थता" का स्वरूप होता है - परिणाम-अनुशंगियता। परिणाम मूलतः है - परमाणु-अंशों के गठन की मात्रा। उसी क्रम में -प्राण-अवस्था बीजानुषंगी विधि से परंपरा है। जीव-अवस्था वंश-अनुषंगी विधि से परंपरा है।

मनुष्य-जाति में जब इस सिद्धांत को ले गए तो पता चलता है - "क्रिया-पूर्णता" और "आचरण-पूर्णता" ही मनुष्य-परंपरा के "बने रहने" का स्वरूप है। जीव-चेतना विधि से मानव-परंपरा के "बने रहने" का वैभव स्थिर नहीं होता है। मानव-चेतना, देव-चेतना, दिव्य-चेतना विधि से ही मानव-परंपरा के "बने रहने" का वैभव स्थिर हो पाता है। ज्ञानार्जन से पहले "उद्भव" या "प्रलय" के पक्ष में मनुष्य काम करता रहता है। ज्ञानार्जन के बाद "बने रहने" के स्वरूप में मानव-परंपरा वर्तमान होता है। पीढी से पीढी तक चलने वाली विधि को हम "मध्यस्थ" कह रहे हैं। मध्यस्थता का यह स्वरूप सम और विषम आवेशों को सामान्य बनाने में प्रवृत्त रहता है।

मध्यस्थता स्थिति में मध्यस्थ-बल है, और गति में मध्यस्थ-शक्ति है। सम और विषम आवेश भी स्थिति में बल और गति में शक्ति के स्वरूप में होता है। वैसे ही मध्यस्थता (आवेश मुक्ति) भी स्थिति में बल और गति में शक्ति है। पदार्थ-अवस्था से ज्ञान-अवस्था तक ऐसे ही है।

मनुष्य के सन्दर्भ में - मनुष्य जागृत होने पर आवेश-मुक्त या मध्यस्थ होता है और सभी आवेशों को सामान्य बनाने में प्रवृत्त रहता है। जागृत होने से पहले मनुष्य स्वयं आवेशित रहता है, तो आवेशों को सामान्य बनाने का काम कैसे करेगा?

प्रश्न: सत्ता को आपने "मध्यस्थ" कहा है। उससे क्या आशय है?

प्रकृति चार अवस्थाओं के रूप में सत्ता में है। सत्ता प्रकृति की क्रियाओं से निष्प्रभावित रहता है। सत्ता पर प्रकृति की क्रियाएं प्रभाव नहीं डालती हैं। प्रकृति की हर क्रिया के मूल में सत्ता-सम्पन्नता रहता ही है। साम्य सत्ता में सम्पूर्ण क्रियाएं डूबे, भीगे, घिरे होने पर भी सत्ता में कोई अंतर नहीं आता है। इसीलिये सत्ता को "मध्यस्थ" कहा है।

मध्यस्थ-सत्ता में संपृक्तता के फलन में ही प्रकृति में मध्यस्थता है। प्रकृति में मध्यस्थता परंपरा के स्वरूप में प्रगट है। सत्ता ही मानव-परंपरा में "ज्ञान" रूप में व्यक्त होता है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००८, अमरकंटक)