ANNOUNCEMENTS



Monday, January 11, 2010

संवाद और गप-शप

वार्तालाप को किसी लक्ष्य या प्रयोजन के सिलसिले में नियंत्रित करने पर संवाद कहलाता है। लक्ष्य और प्रयोजनों से जुड़ा न हो, ऐसे वार्तालाप को गप-शप कहते हैं। संवाद की सार्थकता उसकी गम्य-स्थली (या लक्ष्य) से स्पष्ट होती है।

- ए नागराज शर्मा

Sunday, January 10, 2010

यांत्रिकता भर मनुष्य के "जीने" के लिए पर्याप्त नहीं है.

हम यह तय किये थे :-

(१) हर मनुष्य को अनुभव हो सकता है।
(२) अनुभव का स्वरूप सर्व-मानव के लिए एक समान होगा।
(३) हर मनुष्य में अनुभव या "सुख" की चाहत है।

अब अनुभव के लिए मध्यस्थ-दर्शन में प्रस्तावित है - नियम, नियंत्रण, संतुलन, न्याय, धर्म, और सत्य का अध्ययन। इन ६ मुद्दों के अध्ययन पूर्वक "समझदारी" हासिल होती है। समझदारी पूर्वक "सुख" मनुष्य के अनुभव में आता है।

न्याय अनुभव में आएगा कि नहीं? कि और कुछ आएगा?
समाधान अनुभव में आएगा कि नहीं? कि समस्या आएगा?
सत्य अनुभव में आएगा कि नहीं? कि और कुछ आएगा?
नियम अनुभव में आएगा कि नहीं? कि और कुछ आएगा?
नियंत्रण अनुभव में आएगा कि नहीं? कि और कुछ आएगा?
संतुलन अनुभव में आएगा कि नहीं? कि और कुछ आएगा?

अनुभव मनुष्य के जीने में "सर्वतोमुखी समाधान" स्वरूप में प्रमाणित होता है। अनुभव पूर्वक - मनुष्येत्तर प्रकृति के साथ मनुष्य द्वारा "उत्पादन-कार्य" में नियम-नियंत्रण-संतुलन पूर्वक सामरस्यता प्रमाणित होती है। अनुभव पूर्वक - मनुष्य के साथ मनुष्य के "व्यवहार" में न्याय-धर्म-सत्य पूर्वक सामरस्यता प्रमाणित होती है।

अब आपको यह परीक्षण करना है -

मूल रूप में न्याय एक यांत्रिक-प्रक्रिया है या अनुभव-गम्य है?
मूल रूप में समाधान एक यांत्रिक-प्रक्रिया है या अनुभव-गम्य है?
मूल रूप में सत्य एक यांत्रिक-प्रक्रिया है या अनुभव-गम्य है?
मूल रूप में नियम-नियंत्रण-संतुलन एक यांत्रिक-प्रक्रिया है या अनुभव-गम्य है?

प्रश्न: "यांत्रिक प्रक्रिया" और "अनुभव-गम्य" से आपका क्या आशय है?

यांत्रिकता तर्क या भाषा तक पहुँचती है। अनुभव जीने तक पहुँचता है।

यांत्रिकता का उदाहरण - जीभ का हिलना, कान का सुनना, आँख का देखना, नाक का सूंघना, हाथ से छूना। यह यांत्रिकता हर जीवित आदमी के साथ है।

यांत्रिकता भर मनुष्य के "जीने" के लिए पर्याप्त नहीं है।

अनुभव पूर्वक ही मनुष्य का सही मायनों में "जीना" बनता है। अनुभव पूर्वक जीना - या न्याय, धर्म, सत्य पूर्वक जीना - यांत्रिकता नहीं है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००९, अमरकंटक)

जीवन में संज्ञानीयता प्रक्रिया होती है, शरीर के साथ सवेदनशीलता प्रक्रिया होती है.

Friday, January 8, 2010

सुखी होने की अपेक्षा

मनुष्य के समाधानित होने के लिए उसका ज्ञान-संपन्न होना आवश्यक है। ज्ञान है - अस्तित्व को सह-अस्तित्व स्वरूप में समझ पाना। सह-अस्तित्व में जीवन को समझना। सह-अस्तित्व में मानवीयता पूर्ण आचरण को समझना। यह तीन बात समझ में आता है तो "ज्ञान" हुआ। उसके पहले ज्ञान हुआ नहीं।

अस्तित्व को सह-अस्तित्व स्वरूप में समझने का मतलब है - सह-अस्तित्व में "दृष्टा-पद प्रतिष्ठा" को पाना।

मनुष्य ही सह-अस्तित्व में अध्ययन करता है। अध्ययन का प्रयोजन ही है - सह-अस्तित्व में दृष्टा पद प्रतिष्ठा को पाना। व्यापक और एक-एक वस्तु का सह-अस्तित्व है। यह चार अवस्था (पदार्थ-अवस्था, प्राण-अवस्था, जीव-अवस्था, और ज्ञान-अवस्था) तथा चार पद (प्राण-पद, भ्रांत-पद, देव-पद, और दिव्य-पद) के स्वरूप में प्रकट है। यही अध्ययन की वस्तु है।

सह-अस्तित्व में ही जीवन-ज्ञान है।

सह-अस्तित्व में ही मानवीयता-पूर्ण-आचरण ज्ञान है। मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान के आधार पर मानव-चेतना का पता चलता है। सुविधा-संग्रह के ज्ञान के आधार पर मानव-चेतना का पता नहीं चलता। भक्ति-विरक्ति के ज्ञान के आधार पर मानव-चेतना का पता नहीं चलता।

सह-अस्तित्व में ज्ञान होने पर ही पता चला "मानव-चेतना" का स्वरूप क्या है

मानव-चेतना पूर्वक जीने से "उपकार" करने की विधि आ गयी। उपकार का स्वरूप-ज्ञान होने से देव-चेतना और दिव्य-चेतना का पता चला। मानव-चेतना से पहले उपकार होता नहीं है, चाहे कुछ भी कर लें।

संग्रह-सुविधा विधि से उपकार होता है, या शोषण होता है? आज जिनको सर्वोपरि विद्वान मानते हैं, वे उपकार कर रहे हैं, या शोषण कर रहे हैं?

शोषण करना है, या नहीं करना है? - यह पूछते हैं, तो सभी मनुष्यों का यही उत्तर मिलता है - "नहीं करना है।"

प्रश्न: "शोषण नहीं करना है" - यह सभी मनुष्यों का उत्तर कैसे है?

उत्तर: यही तो जीवन-सहज है। जीवन में "शुभ का चाहत" बना हुआ है। जीवन सहज रूप में शुभ को ही चाहता है। जीवन सुखी होना चाहता है, इसी लिए मनुष्य से ऐसा सकारात्मक-उदगार निकलता है।

प्रश्न: जीवन सहज रूप में "शुभ" को ही क्यों चाहता है?

उत्तर: क्योंकि जीवन की गम्य-स्थली "शुभ" है।

प्रश्न: जीवन को (या मुझे) पता कैसे चला कि उसका गम्य-स्थली "शुभ" है?

उत्तर: जीवन को पता नहीं है, पर ऐसा है! अभी जो लोग कहते हैं, हम "सुखी" हैं या "दुखी" हैं - उनको पता ही नहीं है - सुख क्या है? अभी तक केवल संवेदनाओं का ज्ञान है। संवेदनाएं जब तक राजी रहती हैं, तब तक अपने को "सुखी" मान लेते हैं। संवेदनाएं जब राजी नहीं रहती तो अपने को "दुखी" मान लेते हैं। जंगल-युग में क्रूर जीव-जानवरों से दुखी होने की बात होती थी। आज अमानवीयता से दुखी होने की बात है, जिसको हम "शोषण" कह रहे हैं। सुखी होने की अपेक्षा में ही मनुष्य आज तक दुखी होता आया है।

प्रश्न: सुखी होने की अपेक्षा मनुष्य में आ कैसे गयी?

उत्तर: संवेदनाओं की सीमा में जीने से मनुष्य को सुख भासता है (या सुख जैसा लगता है) - पर वह सुख होता नहीं है। सुख के इस भास् के टूटने से मनुष्य दुखी होता है। "दुःख नहीं चाहिए" - यह मनुष्य को पता चलता है। पर "सुख" क्या है - यह पता नहीं चलता। "दुःख नहीं चाहिए" - इस बात का ज्ञान मनुष्य को जंगल-युग से ही है। ऐसी स्थिति जिसमें "दुःख नहीं हो" - उसको मनुष्य ने "सुख" नाम दे दिया। इस तरह "सुख चाहिए" - यह बात मनुष्य के पकड़ में आयी। "सुख" नाम पकड़ में आया। लेकिन "सुखी" कैसे होना है - यह मनुष्य के पकड़ में नहीं आया। मनुष्य की यह स्थिति जंगल युग से आज के अत्याधुनिक-युग तक बनी हुई है। अत्याधुनिक-युग में मनुष्य ने बहुत शेखी मारा - ऐसा कर देंगे, तैसा कर देंगे! पर उसका सुखी होना भर बना नहीं!

अब क्या किया जाए? यही पुनर्विचार की स्थिति है।

उसी क्रम में यह अनुसंधान हुआ है। अनुसंधान पूर्वक पता चला - मानव-चेतना पूर्वक सर्व-मानव का सुखी होना बनता है।

अभी तक मनुष्य जीव-चेतना में जिया है। जीवों से अच्छा जीने का कोशिश किया है - यह भी है। पर इसी क्रम में धरती बीमार हो गया। भ्रमित-मनुष्य द्वारा जंगल और खनिज के अनानुपातीय शोषण से ही धरती बीमार हुई है। धरती जो बीमार हो गयी तो मानव-चेतना को अपनाना मनुष्य के लिए अनिवार्य हो गया। मनुष्य धरती को तंग करते ही जाए तो धरती सुधरेगा कैसे? मनुष्य समझे, धरती को तंग करना बंद करे - तो धरती का अपने-आप सुधरना बनेगा।

मानव-चेतना विधि से वन और खनिज के अनुपात को समझा जाए, जिससे ऋतु-संतुलन रहने की बात बनती है। ऋतु-संतुलन पूर्वक भौतिक वस्तुओं का उत्पादन करने से "समृद्धि" आती है। इस प्रकार समाधान और समृद्धि पूर्वक मनुष्य का सुख और शान्ति पूर्वक जीना बनता है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००९, अमरकंटक)

अनुभव और अनुभव का प्रमाण

मनुष्य को अनुभव होता है या नहीं? इस बारे में आप का क्या मानना है?

मैं मानता हूँ, मनुष्य को अनुभव हो सकता है।

आप को अनुभव हो सकता है या नहीं? आप अनुभव करना चाहते हैं या नहीं?

हो सकता है, चाहता हूँ।

सर्व-मानव में अनुभव का स्वरूप "एक" होगा या "अनेक" होगा?

एक ही होगा।

बतंगड़ का स्वरूप एक होगा या अनेक होगा?

अनेक होगा।

बतंगड़ पूर्वक या बातों ही बातों में जो हिसा-प्रतिहिंसा के लिए प्रवृत्त हो जाते हैं, वह एक अंत-विहीन कथा है। विखंडन-वादिता से हम किसी सत्यता को पा नहीं सकते। अभी तक मनुष्य विखंडन-वादिता विधि से ही चला है। सर्व-मानव के अपराध में फंस जाने का यही मूल-कारण है। इसका कारण शोध करने पर पता चला - मनुष्य अभी तक "जीव चेतना" में जिया है। जीव-चेतना में विखंडन-विधि ही होती है। जीव-चेतना में सम्पूर्णता या "अनुभव विधि" नहीं है। जीव-चेतना में मानव अपनी कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता के आधार पर विखंडन-वादिता के रास्ते पर चल दिया। विखंडन करते-करते हम किसी अंतिम निष्कर्ष पर पहुंचेंगे ऐसे विज्ञानियों द्वारा सोचा गया, पर ऐसा हुआ नहीं।

आदर्शवादियों ने मानव को विभाजित करने का प्रयास किया। सभी मानवों का प्रवृत्ति एक जैसा है - यह आदर्श-वादियों ने नहीं माना। रंग और नस्ल के आधार पर प्रवृत्ति होती है - ऐसा सोचा गया। इसी आधार पर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र - ये चार भाग कर दिए। यहीं से वेद-विचार की शुरुआत है। वेद-विचार में वर्णों के अनुसार नित्य-कर्मो को बताया - जिसको "धर्म" कहा। इस तरह धर्म के लक्षण को पकड़ा, धर्म पकड़ में आया नहीं!
नित्य-कर्म लक्षण हैं या धर्म? हम जो कर्म करते हैं, वे लक्षण हैं या धर्म हैं? धर्म अनुभव में आता है - या लक्षणों में रहता है?

(मध्यस्थ दर्शन के) अनुसंधान पूर्वक यह निकला - "मानव सुख-धर्मी है। सुख-धर्म मनुष्य के अनुभव में आता है।"



मनुष्य कायिक, वाचिक, मानसिक, कृत, कारित, अनुमोदित - इन ९ प्रकार से कर्म करता है। सभी मनुष्यों के पास इन ९ तरह कर्म करने का माद्दा है - चाहे ब्राह्मण कहलाओ, चाहे शूद्र कहलाओ; चाहे गोरा कहलाओ, चाहे काला कहलाओ। सभी मनुष्य इन ९ तरह से ही काम करते हैं। यह सभी मनुष्यों में "समानता" को पहचानने का आधार हुआ कि नहीं?

मनुष्य काम क्यों करते हैं? - इसका शोध करने पर पता चला, सुखी होने के लिए मनुष्य काम करता है। सुख-धर्म मानव के "अनुभव" में आता है।

सुख अनुभव में आने पर वह अनुभव में ही रहेगा या उसका कोई प्रमाण भी होगा?

अनुभव का प्रमाण होगा या नहीं? इसका शोध करने पर पता चलता है - अनुभव का ही प्रमाण होगा। अनुभव के अलावा और किसी बात का प्रमाण होता नहीं है।

इस तरह सुख-धर्म जो मनुष्य के अनुभव में आता है, उसके प्रमाणित होने का स्वरूप क्या होगा?

इसका शोध करने पर पता चलता है - अनुभव का प्रमाण "समाधान" के स्वरूप में ही होगा। हर मोड़-मुद्दे पर समाधान को प्रस्तुत करना ही मनुष्य के "सुखी" होने का प्रमाण है।

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००९, अमरकंटक)