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Monday, September 7, 2009

श्राप, ताप, और पाप से मुक्ति

प्रश्न: "मनुष्य जब जागृति की ओर एक भी कदम बढाता है, तो वह श्राप, ताप, और पाप तीनो से मुक्त हो जाता है।" इस बात से क्या आशय है?

उत्तर: अनुभव पूर्वक मनुष्य जागृत होता है। अनुभव से पहले कहाँ जागृति है? अनुभव पूर्वक दसों क्रियाएं जीवन में चालित हो जाती हैं। फ़िर एक कदम रखो, या दस रखो! अनुभव अपने में पूर्ण होता है, उसका प्रकटन क्रम से होता है। जैसे - १९७५ में मैं अनुभव संपन्न हुआ। उसका अभिव्यक्ति अभी भी शेष ही है, यह मैं मानता हूँ। वांग्मय रूप में मैंने अपने अनुभव को पूरा अभिव्यक्त कर दिया है।

प्रश्न: मानव संचेतनावादी मनोविज्ञान में आपने जागृत-जीवन के १२२ आचरणों की व्याख्या की है। इन आचरणों को स्वयं में क्रिया के रूप में कैसे पहचान सकते हैं?

उत्तर: पहले इस बात में सुदृढ़ हुआ जाए - मनुष्य जीवन में ४.५ क्रिया में भ्रम-पूर्वक जीता है, और १० क्रिया में जागृति-पूर्वक जीता है। जीवन में १० क्रिया को जब हम प्रमाणित करने लगते हैं, तो जीवन के १२२ आचरण "स्वयं-स्फूर्त" प्रमाणित होने लगते हैं। जीवन में एक तुलन क्रिया है। जैसे-जैसे हम अनुभव-पूर्वक न्याय-धर्म-सत्य तुलन को जीने में प्रमाणित करने लगते हैं, तो ये १२२ आचरण स्वयं-स्फूर्त जीने में व्याख्यायित होता ही रहता है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

Saturday, September 5, 2009

"सुविधा-संग्रह" या "समाधान-समृद्धि"

"सुविधा-संग्रह" लक्ष्य के साथ मानवीयता पूर्ण आचरण जुड़ता नहीं है। जब तक सुविधा-संग्रह लक्ष्य रहता है, तब तक "समाधान" की बात करने तक हम आ सकते हैं, समाधान आचरण में नहीं आ पाता। विचार विधि से जब समाधान-समृद्धि लक्ष्य स्वीकृत हो जाता है तो समझ आचरण में आ जाता है।

प्रश्न: विचार विधि से समाधान-समृद्धि लक्ष्य को स्वयं में स्थिर करने के लिए क्या किया जाए?

उत्तर: सुविधा-संग्रह लक्ष्य स्थिर है, या समाधान-समृद्धि लक्ष्य स्थिर है? - इस पर सोचा जाए। जो लक्ष्य "स्थिर" होगा वही मिल सकता है। यदि जो लक्ष्य ही स्थिर न हो, वह मिलेगा कैसे? इस पर सोचने पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं - समाधान-समृद्धि एक स्थिर लक्ष्य है। हर मनुष्य को समाधान-समृद्धि मिल सकता है। इसके विपरीत सुविधा-संग्रह अस्थिर लक्ष्य है। कितना भी आप सुविधा-संग्रह करो - और करने की जगह बना रहता है। सुविधा-संग्रह का लक्ष्य किसी को मिल नहीं सकता।

दूसरे, "धरती बीमार हो गयी है"। इस परिस्थिति से निकलने के लिए सुविधा-संग्रह लक्ष्य के साथ चलना उचित होगा, या समाधान-समृद्धि लक्ष्य को अपनाना होगा? इस पर सोचा जाए। यह सोचने पर हम निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं, मनुष्य के सुविधा-संग्रह लक्ष्य के साथ जीने से ही यह धरती बीमार हुई।

सुविधा-संग्रह "पर-धन" के बिना हो ही नहीं सकता। "पर-धन" चरित्र से मानवीयता पूर्ण आचरण कैसे जुड़ सकता है? इस पर सोचा जाए। समाधान-समृद्धि "स्व-धन" के साथ ही होता है। स्व-धन चरित्र से ही मानवीयता पूर्ण आचरण जुड़ सकता है।

संवेदनाएं अनियंत्रित होते हुए मानवीयता पूर्ण आचरण का स्वरूप कैसे निकल सकता है? सुविधा-संग्रह लक्ष्य के साथ जीते हुए संवेदनाएं नियंत्रित होने का कोई आधार ही नहीं है। इस पर सोचा जाए! समाधान पूर्वक - या संज्ञानीयता में संवेदनाएं नियंत्रित रहती हैं। नियंत्रित संवेदनाओं के साथ ही मानवीयता पूर्ण आचरण का स्वरूप निकल सकता है।

सुविधा-संग्रह के विचार को छोडे बिना समाधान-समृद्धि का कोई कार्यक्रम बनाया ही नहीं जा सकता। "पर-धन" विचारधारा से मुक्त हुए बिना हम "स्व-धन" का कार्यक्रम बना ही नहीं सकते। कोई भी कार्यक्रम मानसिकता या विचार में ही बनता है। किसी कार्यक्रम के मूल में यदि विचार या विश्लेषण अधूरा है, तो उस कार्यक्रम के फल-परिणाम भी अधूरे ही होंगे।

विचार में यदि हम पूरे पड़ते हैं, तो आचरण में हम पूरे पड़ेंगे ही। सुविधा-संग्रह वादी विचार और समाधान-समृद्धि वादी विचार का कोई मेल ही नहीं है। सुविधा-संग्रह वादी विचार प्रिय-हित-लाभ दृष्टि से है। समाधान-समृद्धि वादी विचार न्याय-धर्म-सत्य दृष्टि से है। समाधान-समृद्धि वादी विचार न ईश्वर-वादी विधि से आता है, न भौतिकवादी विधि से आता है। समाधान-समृद्धि वादी विचार में स्थिर होने के लिए ही सह-अस्तित्व-वाद के अध्ययन का प्रस्ताव है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

Thursday, September 3, 2009

बुद्धि-जीवियों के साथ परेशानी

जीवन-ज्ञान और सह-अस्तित्व ज्ञान संपन्न होने पर हम "समझदार" हुए। समझदारी के साथ मानवीयता पूर्ण आचरण को जोड़ने से हम "ईमानदार" हुए। इस तरह ईमानदारी जोड़ने पर "जिम्मेदारी" और "भागीदारी" आती ही है।

हम शरीर से श्रम कुछ भी न करें, और सुविधा-संग्रह की बहुत सी चीजें इकठ्ठा कर लें - इसका नाम है "बुद्धि-जीविता"। बुद्धि-जीवियों को समझदारी के अनुरूप ईमानदारी स्थापित करने में ही सारी देर लगती है। ईमानदारी के बिना समझदारी पूरा होता नहीं है।

"समझदारी" यदि स्वीकृत होती है, तो उसका प्रमाण "आचरण" में ही होगा। और कहीं होना नहीं है। यदि आचरण में समझदारी आ जाती है तो हम ईमानदार हुए।

प्रिय-हित-लाभ पूर्वक जीना मनुष्य में "चेतना" का एक स्तर है। जिसको "जीव-चेतना" कहा। न्याय-धर्म-सत्य पूर्वक जीना मनुष्य में "चेतना" का दूसरा स्तर है - जिसको "मानव-चेतना" कहा है। इन दोनों के बीच में कुछ नहीं है। जीव-चेतना से मानव-चेतना में shift होने की बात है। जीव-चेतना में संवेदनशीलता पूर्वक जीना होता है। मानव-चेतना में संज्ञानीयता पूर्वक जीना होता है। संज्ञानीयता में संवेदनाएं नियंत्रित रहती हैं।

प्रश्न: जीव-चेतना से मानव-चेतना में shift होने के लिए link क्या हो?

उत्तर: प्रिय-हित-लाभ पूर्वक जीव-चेतना में जीते हुए मनुष्य का लक्ष्य "सुविधा-संग्रह" रहता है। उसके स्थान पर "समाधान-समृद्धि" को लक्ष्य बनाया जाए। आप जो बताये थे - सह-अस्तित्व ज्ञान और जीवन-ज्ञान हमको स्वीकार होते हुए भी हम क्यों नहीं आगे बढ़ पा रहे हैं? यह सोचने पर पता चलता है, इसका कारण है - हम मानवीयता पूर्ण आचरण को जोड़ नहीं पा रहे हैं। विचार-विधि से समाधान-समृद्धि को लक्ष्य बनाने से आचरण का जोड़ बैठ जाता है।

हमें जो पता लगता है - "हम समझे तो हैं, पर प्रमाणित भी नहीं हैं"। इस खाई को भरने की विधि एक ही है - मानवीयता पूर्ण आचरण को वैचारिक रूप में स्वयं में जोड़ पाना। इतना सूक्ष्म है यह! वैचारिक रूप में "मानवीयता पूर्ण आचरण" को इस प्रकार जोड़ने से हम तत्काल ईमानदारी के पक्ष में हो जाते हैं। इसका विधि यही है - सुविधा-संग्रह लक्ष्य के स्थान पर समाधान-समृद्धि लक्ष्य को स्वयं में स्थापित कर लेना। जहाँ मानवीयता पूर्ण आचरण विचार में जुड़ता है - हम उसे प्रमाणित करने लगते हैं।

ईमानदारी के साथ ही समझदारी पूरी होती है। समझदारी और ईमानदारी आने पर जिम्मेदारी और भागीदारी आने में देर नहीं लगती।

हर वस्तु का आचरण ही उसके मौलिक रूप में "होने" का प्रमाण है। उसी तरह मानवीयता पूर्ण आचरण ही मानव के मौलिक रूप में होने का प्रमाण है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

अनुभव की सीढी

अस्तित्व में प्रकटन है। पदार्थ-अवस्था से प्राण-अवस्था प्रकट हुई है। प्राण-अवस्था से जीव-अवस्था प्रकट हुई है। जीव-अवस्था से ज्ञान-अवस्था प्रकट हुई है।

परमाणु में विकास का अन्तिम-स्वरूप "जीवन" है।

भौतिक-रचना के विकास-क्रम का अन्तिम-स्वरूप यह "धरती" है।

भौतिक-रासायनिक रचना के विकास-क्रम का अन्तिम-स्वरूप "मानव-शरीर" है।

धरती पर मानव-शरीर का प्रकटन "नियति-विधि" से हुआ है। मानव-शरीर के धरती पर प्रकटन में मानव का कोई हाथ नहीं है। धरती के गठित/रचित होने में मानव का कोई हाथ नहीं है। धरती पर ही मानव रह सकता है। मानव के धरती पर रहने के लिए, मानव से पहले जो कुछ भी धरती पर प्रकट हुआ, उसके बने रहने की आवश्यकता है। प्रकटित वस्तु के प्रकटन के पीछे की सारी वस्तुएं बनी रहने पर ही प्रकटित वस्तु रह सकता है। प्रकटन से पहले की सभी वस्तुएं मिट जाएँ, और प्रकटित वस्तु रह जाए - यह कैसे हो?

अस्तित्व में मनुष्य ही "कर्ता" पद में है। मनुष्य के अलावा बाकी सभी वस्तुएं नियति-क्रम में अपने प्रकटन के अनुरूप "कार्य" करते रहते हैं।

पदार्थ-अवस्था की इकाइयां अपने गठन के अनुसार "कार्य" करती रहती हैं।

पेड़-पौधे बीज के अनुरूप "कार्य" करते रहते हैं।

"देखने" वाली इकाई जीवन ही है। भौतिक-रासायनिक वस्तुओं में "देखने" की कोई बात नहीं होती।

जीव-जानवर अपने वंश के अनुरूप "कार्य" करते रहते हैं। जीवों में वंश के अनुरूप जीवन शरीर को चलाता रहता है।

नियति-क्रम में मनुष्य-शरीर का प्रकटन हुआ। मनुष्य-शरीर की ही विशेषता है कि जीवन उसे जीवंत बनाते हुए कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता को प्रकट करने लगा। कल्पनाशीलता के बदौलत मनुष्य ने अपने परम्परा स्वरूप में "होने" को स्वीकार लिया है। लेकिन कल्पनाशीलता की सीमा में मनुष्य का अपने "व्यवस्था में रहने" के स्वरूप को स्वीकारना नहीं बन पाया।

मनुष्य के "व्यवस्था में रहने" के लिए उसे एक और सीढ़ी चढ़ने की ज़रूरत है। वह है - अनुभव की सीढ़ी! अनुभव हर व्यक्ति के पास हो, और परम्परा में मानव-चेतना प्रमाणित हो। हर व्यक्ति के पास अनुभव को मानव-चेतना विधि से जी कर प्रमाणित करने की सुविधा हो। इसके लिए ही मध्यस्थ-दर्शन के अध्ययन का प्रस्ताव है।

इसमें किसको क्या विपदा है, आप बताओ?

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)