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Friday, April 18, 2008

अनुभव का प्रमाण परम्परा में ही हो सकता है.

अनुभव का प्रमाण एकांत में नहीं हो सकता। एक व्यक्ति को अनुभव हो गया - लेकिन वह अपने जैसा दूसरों को नहीं बना पाया, तो उसका कोई प्रमाण नहीं हुआ। परम्परा में प्रमाण होने का मतलब है अनुभव की व्याख्या का - आचरण में आना, शिक्षा में आना, संविधान में आना, और व्यवस्था में आना।

अनुभव में दृष्टा-पद प्रतिष्ठा हो जाती है। दृष्टा पद का मतलब है - अस्तित्व जैसा है उसको वैसा देख पाना। अनुभव का प्रमाण जागृति है। जिसको मानव-चेतना भी कहा है। मानव-चेतना ही स्वभाव में धीरता, वीरता, उदारता, दया, कृपा, और करुणा है। मानव अपनी स्वभाव-प्रतिष्ठा में स्थापित होने पर ही व्यवस्था में जी पाता है।

मानवीयता पूर्ण आचरण आज तक किसी ने किया या नहीं? इसके उत्तर में यही कहा जा सकता है, की यदि किया भी हो तो वह आज तक परम्परा में स्थापित नहीं हुआ। शिक्षा में नहीं आया। संविधान में नहीं आया। व्यवस्था में व्याख्या नहीं हुआ। मानवीयता पूर्ण आचरण को मूल्य, चरित्र, और नैतिकता के स्वरूप में व्याख्या विगत के किसी साहित्य में नहीं हुआ।

भक्ति-विरक्ति का मार्ग परिवार संबंधों में अविश्वास से ही शुरू होता है। भौतिकवाद के मार्ग में तो शुरू से आख़िर तक संघर्ष ही बताया है।

मानवीयता पूर्ण आचरण मन की स्वस्थता का ही स्वरूप है। आदर्शवाद में मनः स्वस्थता न होने की पीड़ा को व्यक्त तो किया है - लेकिन उपलब्धि की जगह में नहीं पहुँचा पाए। भौतिकवाद मनः स्वस्थता की कोई बात ही नहीं करता। दोनों के द्वारा मानव की परिभाषा नहीं मिल पाती।

मध्यस्थ-दर्शन से मानव की परिभाषा मिली - "मनाकार को साकार करने वाला, और मनः स्वस्थता को चाहने और प्रमाणित करने वाला मानव है।" मानव को जीवन और शरीर का संयुक्त स्वरूप बताया। जिसमें से जीवन की ४.५ क्रिया पूर्वक मनाकार को साकार करना बन गया। मनः स्वस्थता का खाका वीरान पड़ा रहा। मनः स्वस्थता की आकांक्षा मानव में है - क्योंकि मानव सुख-धर्मी है। यह आकांक्षा मध्यस्थ-दर्शन के अध्ययन से पूरी हो सकती है। अध्ययन से अनुभव तक पहुँचा जा सकता है। अनुभव पूर्वक ही व्यवहार में मूल्य प्रमाणित होते हैं। अनुभव पूर्वक समाज में चरित्र प्रमाणित होता है। अनुभव पूर्वक व्यवस्था में नैतिकता प्रमाणित होती है। इस तरह अनुभव का प्रमाण मानव-परम्परा में बहता है।

- श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २००८)